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पातुओं के विविध पात्रों (परतनों) की शुद्धि शुद्धि केवल अम्ल (खटाई) से होती है, अन्य साधन भी प्रयुक्त हो सकते हैं। पात्रों की शुद्धि की विभिन्न विधियों के विषय में लिखना आवश्यक नहीं है। शुद्धिप्रकाश (पृ० ११७-११८) की एक उक्ति इस विषय में पर्याप्त होगी कि मध्यकाल में पात्र-शुद्धि किस प्रकार की जाती थी-“सोने, चांदी, मूंगा, रत्न, सीपियों, पत्थरों, काँसे, पीतल, टीन, सीसा के पात्र केवल जल से शुद्ध हो जाते हैं यदि उनमें गन्दगी चिपकी हुई न हो; यदि उनमें उच्छिष्ट भोजन आदि लगे हों तो वे अम्ल, जल आदि से परिस्थिति के अनुसार शुद्ध किये जाते हैं। यदि ऐसे पात्र शूद्रों द्वारा बहुत दिनों तक प्रयोग में लाये गये हों या उनमें भोजन के कणों का स्पर्श हुआ हो तो उन्हें पहले भस्म से मांजना चाहिए और तीन बार जल से धोना चाहिए और अन्त में उन्हें अग्नि में उस सीमा तक तपाना चाहिए कि वे समग्न रह सकें अर्थात् टूट न जायें, गल न जायें या जल न जायें, तभी वे शुद्ध होते हैं। कांसे के बरतन यदि कुत्तों, कौओं, शूद्रों या उच्छिष्ट भोजन से केवल एक बार छू जायें तो उन्हें जल एवं नमक से दस बार मांजना चाहिए, किन्तु यदि कई बार उपर्युक्त रूप से अशुद्ध हो जाये तो उन्हें २१ बार मांजकर शुद्ध करना चाहिए। यदि तीन उच्च वर्गों के पात्र को शूद्र व्यवहार में लाये तो वह चार बार नमक से घोने एवं तपाने से तथा जल से धोये गये शुद्ध हाथों में ग्रहण करने से शुद्ध हो जाता है। सद्यः प्रसूता नारी द्वारा व्यवहृत कांसे का पात्र या वह जो मद्य से अशुद्ध हो गया हो तपाने से शुद्ध हो जाता है, किन्तु यदि वह उस प्रकार कई बार व्यवहृत हुआ हो तब वह पुनर्निर्मित होने से ही शुद्ध होता है। वह कांसे का बरतन जिसमें बहुधा कुल्ला किया गया हो, या जिसमें पैर धोये गये हों उसे पृथिवी में छ: मास तक गाड़ देना चाहिए और उसे फिर तपाकर काम में लाना चाहिए (पराशर ७।२४-२५); किन्तु यदि वह केवल एक बार इस प्रकार अशुद्ध हुआ हो तो केवल १० दिनों तक गाड़ देना चाहिए। सभी प्रकार के धातु-पात्र यदि थोड़े काल के लिए शरीर की गन्दगियों, यथा-मल, मूत्र, वीर्य से अशुद्ध हो जायँ तो सात दिनों तक गोमूत्र में. रखने या नदी में रखने से शुद्ध हो जाते हैं, किन्तु यदि वे कई बार अशुद्ध हो जायें या शव, सद्य:प्रसूता नारी या रजस्वला नारी से छू जाये तो तीन बार नमक, अम्ल या जल से धोये जाने के उपरान्त तपाने से शुद्ध हो जाते हैं, किन्तु यदि वे भूत्र से बहुत समय तक अशुद्ध हो जाये तो पुनर्निर्मित होने पर ही शुद्ध हो सकते हैं।"
विष्णु० (२३।२ एवं ५) ने कहा है कि सभी धातुपात्र जब अत्यन्त अशुद्ध हो जाते हैं तो वे तपाने से शुद्ध हो जाते हैं, किन्तु अत्यन्त अशुद्ध लकड़ी एवं मिट्टी के पात्र त्याग देने चाहिए। किन्तु देवल का कथन है कि कम अशुद्ध हुए काष्ठपात्र तक्षण (छीलने) से या मिट्टी, गोबर या जल से स्वच्छ हो जाते हैं और मिट्टी के पात्र यदि अधिक अशुद्ध नहीं हुए रहते तो तपाने से शुद्ध हो जाते हैं (याज्ञ० १११८७ में भी ऐसा ही है)। किन्तु वसिष्ठ (३१५९) ने कहा है कि सुरा, मूत्र, मल, बलगम (श्लेष्मा), आंसू, पीव एवं रक्त से अशुद्ध हुए मिट्टी के पात्र अग्नि में तपाने पर भी शुद्ध नहीं होते।"
___ वैदिक यज्ञों में प्रयुक्त पात्रों एवं वस्तुओं की शुद्धि के लिए विशिष्ट नियम हैं। बौघा० ध० सू० (११५।५१५२) के मत से यशों में प्रयुक्त चमस-पात्र विशिष्ट वैदिक मन्त्रों से शुद्ध किये जाते हैं"; क्योंकि वेदानुसार जब उनमें सोमरस का पान किया जाता है तो चमस-पात्र उच्छिष्ट होने के दोष से मुक्त रहते हैं। मनु (५।११६-११७), याज्ञ. (१११८३-१८५), विष्णु० (२३८-११), शंख (१६।६), पराशर (७।२-३) आदि ने भी यज्ञ-पात्रों की शुद्धि के
.. ७.. मत्रैः पुरीवैर्वा श्लेष्मपूपाशुशोणितः। संस्पृष्टं नैव शुभ्येत पुनःपाकेन मन्मयम् ॥ वसिष्ठ (३१५९= मनु ५।१२३)।
७१. वचनायो चमसपात्राणाम्। न सोमेनोच्छिष्टा भवन्तीति श्रुतिः। बौ० ५०० (१५।५१-५२)। देखिए इस पन्थ का सग २, अध्याय ३३, जहाँ एक के पश्चात एक पुरोहितों द्वारा चमसों से सोम पीने का उल्लेख है।
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