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________________ ११९४ धर्मशास्त्र का इतिहास __ स्मृतियों ने बहुत-सी अन्य वस्तुओं की शुद्धि की चर्चा की है, जिसे हम महत्त्वपूर्ण न समझकर छोड़ रहे हैं। दोएक उदाहरण दे दिये जा रहे हैं। मनु (५।११९) ने कहा है कि चर्म एवं बाँस की तीलियों (या बेतों) से बनी हुई वस्तुएँ वस्त्रों के समान ही शुद्ध की जाती हैं और शाक, मूल एवं फल आदि अन्नों के सदृश स्वच्छ किये जाते हैं। मनु (५।१२०१२१) ने पुनः कहा है कि सीप, शंख, सींग (भैसों एवं भेड़ों के) एवं हाथियों के दाँत तथा अस्थियाँ या सूअरों के दाँत सन के वस्त्रों के समान या गोमूत्र या जल से शुद्ध होते हैं, घास, लकड़ियाँ एवं भूसा प्रोक्षण से पवित्र किये जाते हैं। विष्णु० (२३॥१५, १६, २३) एवं याज्ञ० (१११८५) ने भी ऐसी ही व्यवस्था दी है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि वस्तुओं की शुद्धि कई बातों पर निर्भर है, अर्थात् वे धातु की हैं या मिट्टी की, वे कठोर हैं या तरल, वे अधिक मात्रा में हैं या थोड़ी, या ढेरी में हैं, अथवा अशुद्धि अत्यधिक है या साधारण, आदि। मनु (५।११०) की द्रव्य-शुद्धि मनुष्य के शरीर को शुद्धि के साधनों का अनुसरण करती है। इस ग्रन्थ के खण्ड २, अध्याय ७, ११, १२ एवं १७ में आचमन, स्नान आदि के रूप में शरीर-शुद्धि का विवेचन हो चुका है। अशौच की शुद्धि स्नान से होती है, इस पर हमने विचार कर लिया है। व्यभिचार के अपराध वाली नारी एवं बलात्कार से भ्रष्ट की हुई नारी की शुद्धि के लिए विशिष्ट नियम हैं (देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय ११)। पतित (ब्रह्मघातक आदि), चाण्डाल, सद्यःप्रसूता नारी, रजस्वला नारी तथा शव का स्पर्श करने पर वस्त्रयुक्त स्नान का विधान है। यही बात शव-यात्रा एवं कुत्तों के छूने पर भी है (गौतम० १४१२८-३०; मनु ५।८५ एवं १०३; अंगिरा १५२; आ० ३० सू० १०५।१५। १५-१६ एवं याज्ञ० ३।३०)। बौ० ५० सू० (११५।१४०) में आया है कि वेद-विक्रेता (धन लेकर पढ़ाने वाले), यूप (जिसमें सिर बाँधकर बलि दी जाती है), चिता, पतित, कुत्ते एवं चाण्डाल का स्पर्श करने पर स्नान करना चाहिए। यही बात पराशर ने भी कही है। इस ग्रन्थ के खण्ड २, अध्याय ४ में हमने देख लिया है कि किस प्रकार मन्दिर या धार्मिक जुलूसों में, विवाहों, उत्सवों एवं तीर्थों के मेले-ठेले में अस्पृश्यों के स्पर्श के विषय में नियम ढीले कर दिये गये हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यहाँ अस्पृश्यों के प्रति नहीं प्रत्युत अशौच से युक्त पुरुषों के प्रति छूट की ओर संकेत है। किन्तु यह ठीक नहीं है, जैसा कि शुद्धिप्रकाश एवं शुद्धिकौमुदी की व्याख्या से प्रकट होता है। यथा-प्रथम बात यह है कि प्रयुक्त वचन सामान्य रूप से कहे गये हैं, न कि संकुचित अर्थ में। दूसरी बात यह है कि जननाशौच के आधार पर (माता को छोड़कर) छूत नहीं लगती, और यह बात प्रकट है कि मरणाशौच वाले व्यक्ति मन्दिर में, विवाहों, धार्मिक यात्रा या मेले या उत्सव में नहीं जाते। तीसरी बात यह है कि बहुत से अवसरों को उल्लिखित करते समय (यथा-धार्मिक यात्राओं, युद्धों, गाँव एवं नगर में आग लगने, विप्लवों या बाह्याक्रमणों में सम्मिलित होते समय) ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उपर्युक्त उक्ति केवल जनन-मरणाशीच की ओर संकेत करती है। " ७८. वेदविक्रयिणं यूपं पतितं चितिमेव च। स्पृष्ट्वा समाचरेत्स्नानं श्वानं चण्डालमेव च ॥ बौ० ५० सू० (११५।१४०)। चैत्यवृक्षश्चिति' पश्चाण्डालः सोमविक्रयो। एतांस्तु ब्राह्मणः स्पृष्ट्वा सचैलो जलमाविशेत् ॥ पराशर (शु० को०, पृ० ३२७, जिसने व्याख्या की है--चैत्यवृक्षो ग्राममध्ये देवपूजावृक्षः, यूपोन्त्येष्टिकर्मयूपश्चितिसंनिधानात् । ७९. तीये विवाहे यात्रायां संग्रामे देशविप्लवे । नगरप्रामदाहे च स्पृष्टास्पृष्टिर्न दुष्यति ॥ बृहस्पति (२० कौ०, पृ० ३२३; शु० प्र०, पृ० १३०)। और देखिए स्मृतिच० (१, पृ० १२१-१२२), जिसने यह एवं अन्य दो उद्धृत किये हैं--"देवयात्राविवाहेषु यज्ञेषु प्रकृतेषु च। उत्सवेषु च सर्वेषु स्पृष्टास्पृष्टिर्न विद्यते ॥...(शातातप एवं षट्त्रिंशन्मत)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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