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जल एवं क्लासयों की वृद्धि-व्यवस्था रंग (पारदर्शक) हो गया हो और जिसका स्वाद एवं गन्ध शुद्ध हो। शंख का कथन है कि पथरीली भूमि पर एकत्र एवं बहता हुआ जल सदैव शुद्ध होता है। देवल का कथन है कि स्वच्छ पात्र में लाया हुआ जल शुद्ध होता है, किन्तु जब वह बासी होता है (एक रात्रि या अधिक समय तक रखा रहता है) तो उसे फेंक देना चाहिए (यद्यपि मूलतः वह शुद्ध था)। किसी जीव द्वारा न हिलाया गया एवं प्रपात का जल शुद्ध होता है। गहरे तालाबों (जिन्हें हिलाया नहीं जा सकता), नदियों, कूपों, वापियों के जल को उन सीढ़ियों द्वारा प्रयोग में नहीं लाना चाहिए, जो चाण्डालों एवं अन्य अशुद्ध व्यक्तियों या वस्तुओं के सम्पर्क में आ गयी हों (अपरार्क, पृ० २७२; शु०, प्र०, पृ० १०२)।"
बृहस्पति ने व्यवस्था दी है कि यदि कूप में पांच नखों वाले प्राणियों अर्थात् किसी मनुष्य या पशु का शव पाया जाय, या यदि कूप-जल किसी प्रकार अत्यन्त अशुद्ध हो जाय तो सारा जल निकाल बाहर करना चाहिए, और शेष को वस्त्र से सुखा देना चाहिए; यदि कूप ईंटों से निर्मित किया गयाहोतो अग्नि जलायी जानी चाहिए जिसकी ज्वाला दीवारों तक को छ ले, और जब ताजा पानी निकलना आरम्भ हो जाय तो उस पर पंचगव्य ढारना चाहिए। आप० (६० को०, प० २९९) ने उन स्थितियों का उल्लेख किया है जिनसे कप अशुद्ध हो सकता है-केश, विष्ठा, मूत्र, रजस्वला स्त्री का द्रव पदार्थ, शव-इनके पड़ने से जब कूप अशुद्ध हो जाता है तो उससे सौ पड़े जल निकाल बाहर करना चाहिए (यदि अधिक पानी हो तो पंचगव्य से शुद्धि भी करनी चाहिए)। यही बात पराशर (७३) ने भी वापियों, कूपों एवं तालाबों के विषय में कही है।
याज्ञ० (१७१९७-विष्ण०२३१४१) ने व्यवस्था दी है कि मिट्टी (कीचड़) एवं जल जो सड़क पर चाण्डाल जैसी जातियों, कुत्तों एवं कौओं के सम्पर्क में आता है, तथा मठ जैसे मकान जो ईंटों से बने रहते हैं, केवल उन पर बहने वाली हवा से शुद्ध हो जाते हैं। पराशर (७।३४) का कथन है कि मार्गों का कीचड़ एवं जल, नावें, मार्ग और वे सभी जो पकी ईटों से बने रहते हैं, केवल वायु एवं सूर्य से पवित्र हो जाते हैं।
भूमि पर गिरा हुआ वर्षा-जल १० दिनों तक अशुद्ध मामा जाता है। इसी प्रकार योगी-याज्ञवल्क्य (शु० को०, पृ० २९१) का कथन है कि (गर्मी में सुख जानेवाली) नदी में जो सर्वप्रथम बाढ़ आती है उसे शुद्ध नहीं समझना चाहिए, और वह जल जिसे पैर से हिला दिया गया है और वह जल जो गंगा जैसी पवित्र नदियों से नाले के रूप में निकलता है, शुद्ध नहीं समझना चाहिए। जो वापी, कूप या बांध वाले जलाशय हीन जाति के लोगों द्वारा निर्मित होते हैं, उनमें स्नान करने या उनका जल ग्रहण करने से प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता (शातातप, मिता० एवं अपरार्क, याज्ञ० ३।१९२; शु० प्र०, पृ० १६)।
विष्णु० (२३।४६) का कथन है कि स्थिर जल वाले जलाशयों (जिनसे बाहर जल नहीं जाता) की शुदि वापी की भाँति होती है, किन्तु बड़े-बड़े जलाशयों के विषय में शुद्धि की आवश्यकता नहीं होती। ऐसा घोषित हुना
६५. भूमिष्ठमुदकं शुसं शुचि तोयं शिलागतम् । वर्षगल्बरसजितं परितद् भवेत् ॥ (१९०१२-१३ शुद्धिकौमुदी, पृ० २९७; शुद्धिप्रकाश, पृ० १०२)।
६६. अक्षोम्याणि तगगानि नदीबापीसरासि । बन्दालाचशुचिस्पर्श तीर्थतः परिवर्जयेत् ॥ अक्षोम्याणामपा मास्ति प्रश्नुतानां च दूषणम् । देवल (मपरार्फ, पृ० २७२, शु०प्र०, पृ० १०२)।
६७. मृतपंचनखात्कूपावत्यन्तोपहतात्तथा। अपः समुबारेत्सर्वाः शेष पोन शोषयेत् ॥ बलिप्रज्वालनं कृत्वा कूपे पक्वेष्टकाचिते। पंचगव्यं न्यसेत् पश्चानवतोयसमुद्भवे। बृहस्पति (अपरार्क, पृ० २७२)। और रेलिए . को० (पृ. २९८) एवं विष्णुधर्मसूत्र (२३॥४-४५) ।
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