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धर्मशास्त्र का इतिहास
विश्वरूप (याज्ञ० १।१९१) ने एक लम्बी वैदिक उक्ति उद्धृत की है जहाँ यह आया है - जो सन्देह उत्पन्न कर दे ( यह शुद्ध है कि अशुद्ध) उसे जल का स्पर्श करा देना चाहिए तब वह पवित्र हो जाता है। इसी से गर्म या ठंडा जल कतिपय पात्र प्रकारों एवं भूमि को शुद्ध करनेवाला कहा गया है (मनु ५११०९, ११२ एवं १२६ ; याज्ञ० १११८२-१८८ एवं १८९ ) । गोमिल (१।३१-३२) ने कहा है कि जब कोई धार्मिक कृत्य करते हुए पितरों वाला मन्त्र सुन ले, अपने शरीर को खुजला दे, नीच जाति के व्यक्ति को देख ले, अपान वायु छोड़ दे, जोर से हँस पड़े या असत्य बोल दे, बिल्ली या चूहे को छू ले, कठोर वचन बोल दे, क्रोध में आ जाय तो उसे आचमन करना चाहिए या जल छू लेना चाहिए।"
याज्ञ० ( १११८७ ) एवं विष्णु० (२३।५६ ) के मत से अशुद्ध घर को झाड़ू-बुहारू एवं गोबर से लीपकर शुद्ध किया जाता है। किन्तु ब्राह्मण के घर में यदि कुत्ता, शूद्र, पंतित, म्लेच्छ या चाण्डाल मर जाय तो शुद्धि के कठिन नियम बरते जाते थे। घर को बहुत दिनों तक छोड़ देना होता था । संवर्त (अपरार्क, पृ० २६५ शु० प्र०, पृ० १०० - १०१; शु० कौ०, ३०३- ३०४) का कथन है कि जो घर दाव के रहने से अपवित्र हो जाय तो उसके साथ निम्न व्यवहार होना चाहिए; मिट्टी के पात्र एवं पक्वान्न फेंक दिये जाने चाहिए, घर को गोबर से लीपना चाहिए, उसमें बकरी को घुमाना चाहिए जिससे वह सभी स्थानों को सूंघ ले, इसके उपरान्त पूरे घर को जल से धोना चाहिए, उस में सोना एवं कुश युक्त जल गायत्री मन्त्र के पाठ से पवित्र हुए ब्राह्मणों द्वारा छिड़का जाना चाहिए, तब कहीं घर शुद्ध होता है !" मरीचि का कथन है कि यदि चाण्डाल केवल घर में प्रविष्ट हो जाय तो वह गोबर से शुद्ध हो सकता है, किन्तु यदि वह उसमें लम्बी अवधि तक रह जाय तो शुद्धि तभी प्राप्त हो सकती है जब कि वह गर्म कर दिया जाय और अग्नि की ज्वाला aari को छू लें । "
ब्राह्मण का घर, मन्दिर, गोशाला की भूमि, यम के मत से, सदा शुद्ध मानी जानी चाहिए, जब तक कि वे अशुद्ध न हो जायें ।
की शुद्धि के विषय में स्मृतियों एवं निबन्धों में बहुत कुछ कहा गया है। आप० घ० सू० ( १।५।१५/२) ने सामान्य रूप से कहा है कि भूमि पर एकत्र जल का आचमन करने से व्यक्ति पवित्र हो जाता है । " किन्तु बौधा० घ० सू० ( १/५/६५), मनु ( ५। १२८), याज्ञ० (१।१९२), शंख (१६।१२-१३), मार्कण्डेयपुराण (३५।१९ ) आदि ने इतना जोड़ दिया है कि वह जल स्वाभाविक स्थिति वाला कहा जाता है जो भूमि पर एकत्र हो, वह इतनी मात्रा में हो कि उसे पीकर एक गाय की तृप्ति हो सके, जो किसी अन्य अपवित्र वस्तु से अशुद्ध न कर दिया गया हो, जिसका स्वाभाविक
पवमानश्च मुचतु ॥ वा० सं० (६।१७) । आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु घृतेन भो घृतप्वः पुनन्तु । वा० सं० (817) 1
६१. मित्रमन्त्रानुश्रवण आत्मालम्भेऽधमेक्षणे ।
अधोवायुसमुत्सर्गे प्रहासेऽनृतभाषणे ॥ मार्जारमूषकस्पर्श आष्टे क्रोधसम्भवें । निमित्तेष्वेषु सर्वत्र कर्म कुर्वज्ञपः स्पृशेत् ॥ गोभिलस्मृति (१।३१-३२, कृत्यरत्नाकर, १०५० ) । ६२. संवर्तः । गृहशुद्धिं प्रवक्यामि अन्तःस्थशवदूषणे । प्रोत्सृज्य मृन्मयं भाण्डं सिद्धमन्नं तथैव च ॥ गृहावपास्य तत्सर्वं गोमयेनोपलेपयेत् । गोमयेनोपलिप्याथ छागेना प्रापयेद् बुधः । ब्राह्मणैर्मन्त्रपूतैश्च हिरण्यकुशवारिणा । सर्वमभ्युक्षयेद्वेश्म ततः शुध्यत्यसंशयम् । अपरार्क (१० २६५; शु० प्र०, पृ० १००-१०१; शु० कौ०, पृ० ३०३-३०४) ।
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६३. गृहेष्वजातिसंवेशे शुद्धिः स्यादुपलेपनात् । संवासो यदि जायेत वरहतापनिनिविशेत् ॥ मरीचि (अपरार्क, पृ० २०६ शुद्धि प्र०, पृ० १०१; शु० कौ०, पृ० ३०३ ) ।
६४. भूमिगतास्वत्वाचम्य प्रयतो भवति । आप० ० सू० ( ११५।१५।२) ।
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