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________________ द्रव्य-शुद्धि की सामान्य और विशेष व्यवस्था ११८५ से बनी वस्तुओं एवं सूत्रों से बने जस्त्रों की शुद्धि क्रम से रगड़ने (घर्षण) से, अग्नि में पकाने से, छीलने से एवं जल में घोने से होती है; पत्थरों, मणियों, शंखों एवं मोतियों को धातुओं से निर्मित वस्तुओं को स्वच्छ करने वाले पदार्थों से शुद्ध किया जाता है; अस्थियों (हाथीदांत से बनी वस्तुओं) एवं मिट्टी (मिट्टी के फर्श या घर) को लकड़ी छीलकर शुद्ध करने के समान शुद्ध किया जाता है; भूमि को ( पवित्र स्थान से लाकर ) मिट्टी रखकर शुद्ध किया जाता है; रस्सियाँ, बाँस के टुकड़े, विल (छाल) एवं चर्म वस्त्र के समान ही शुद्ध किये जाते हैं या अत्यधिक अशुद्ध हो जाने पर व्यक्त कर दिये जा सकते हैं (मल-मूत्र या मद्य से वे अत्यधिक अशुद्ध हो जाते हैं) । वसिष्ठ ( ३।४९-५३) ने 'भस्मपरिमार्जन' ( भस्म से या जल से स्वच्छ करने) को 'परिमार्जन' के स्थान पर रखकर यही बात कही है। आप० घ० सू० (१/५/१७।१०-१३) ने व्यवस्था दी है- “यदि कोई अन्य प्रयुक्त पात्र मिले तो उसे उष्ण करके उसमें भोजन करना चाहिए, धातु से बने पात्र को राख ( भस्म ) से शुद्ध करना चाहिए, लकड़ी के बने पात्र छील देने से शुद्ध हो जाते हैं, यज्ञ में वेदनियम के अनुसार पात्र स्वच्छ किये जाने चाहिए।" याज्ञ० ( ३।३१-३४) का कथन है— काल (आशौच के लिए दस दिन या एक मास ), अग्नि, धार्मिक कृत्य ( अश्वमेघ या सन्ध्या करना), मिट्टी, वायु, मन, आध्यात्मिक ज्ञान, (कुच्छ जैसे ) तप, जल, पश्चात्ताप एवं उपवास - ये सभी शुद्धि के कारण हैं । जो लोग वर्जित कर्म करते हैं उनके द्वारा दान देना शुद्धि का द्योतक है, नदी के लिए जल-प्रवाह, मिट्टी एवं जल अशुद्ध वस्तुओं की शुद्धि के साधन हैं; द्विजों के लिए संन्यास, अज्ञानवश पाप करने पर वेदशों के लिए तप, आत्मज्ञों के लिए सहनशीलता, गंदे शरीरांगों के लिए जल, गुप्त पापों के लिए वैदिक मन्त्रों का जप, पापमय विचारों से अशुद्ध मन के लिए सत्य, जो अपने शरीर से आत्मा को संयुक्त मानते हैं उनके लिए तप एवं गूढ़ ज्ञान, बुद्धि के लिए सम्यक् ज्ञान शुद्धि के स्वरूप हैं, ईश्वर-ज्ञान आत्मा का सर्वोत्तम शुद्धि-साधन है। यही बात मनु (५।१०७-१०९ = विष्णु ० २२।९०-९२ ) ने भी इन्हीं शब्दों में कही है। द्रव्यशुद्धि के लिए fafa - व्यवस्था देने के समय कुछ बातों पर ध्यान देना चाहिए, जो बौधायन ( मिला०, याश० १।१९०) द्वारा यों व्यक्त की गयी हैं-काल, स्थान, शरीर ( या अपने स्वयं ), द्रव्य ( शुद्ध की जानेवाली वस्तु), प्रयोजन ( वह प्रयोजन जिसके लिए वस्तु का प्रयोग होनेवाला हो), उपपत्ति (मूल, अर्थात् अशुद्धि का कारण एवं ) उस अशुद्ध वस्तु की या व्यक्ति की अवस्था । " शुद्धि के साधनों एवं कुछ वस्तुओं की शुद्धि के विषय में कुछ विभिन्न मत भी हैं। इन भेदों की चर्चा विस्तार के साथ करना अनावश्यक है। कतिपय स्मृतियों एवं निबन्धों के मत से कौन-सी वस्तुएँ किस प्रकार शुद्ध की जाती हैं, उनके विषय में एक के पश्चात् एक का वर्णन हम उपस्थित करेंगे। । ५३. द्रव्यशुद्धिः परिमार्जनप्रवाहतक्षणनिर्णेजनामि तेजसमार्तिकदारवतान्तवानाम् । तैजसवदुपलमणिशंसमुक्तानाम् । वाश्ववस्थिभूम्योः । आवपनं च भूमेः । चैलबग्रज्युविवलचर्मणाम् । उत्सनों वात्यन्तोपहतानाम् । गौ० ब० स० (१।२८-३३) । 'अत्यन्तोपहत' को विष्णुधर्म० (२३।१) ने 'शारीरमेलेः सुराभिर्मीर्वा यमुपहतं तदत्यन्तोपहतम्' के द्वारा समझाया है। ५४. वेशं कालं तमात्मानं द्रव्यं द्रव्यप्रयोजनम् । उपपत्तिमवस्थां च ज्ञात्वा शौचं प्रकल्पयेत् ॥ बौधायन (मिला०, याश० १।१९०; विश्वरूप, याश० १।१९५ एवं मेधातिथि, मनु ५।११८) । बौघा० ष० सू० (१/५/५५ ) में आया है देशं ... वस्थां च विज्ञाय शौचं शोचनः कुशलमे धर्मेप्सुः समाचरेत् । लघुहारीत (५५) में 'कालं देशम्' आया है। मिता० ने 'तथा' के बाद 'मानं' पढ़ा है जिसका अर्थ है 'परिमाण' ( वह परिभाषा या सीमा जहाँ तक वस्तु को शुद्ध किया जाय ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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