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धर्मशास्त्र का इतिहास
पर गिरा हो) एवं दर्भ अपवित्र नहीं कहे जाते, वे यज्ञों के चमसों के समान शुद्ध ही रहते हैं।""परा० मा० ने चतुर्विशतिमत को उद्धृत किया है कि “कच्चा मांस, घृत, मधु, फलों से निकाले हुए तेल, चाहे वे चाण्डालों के पात्रों में ही क्यों न हों, बाहर निकाले जाने पर शुद्ध हो जाते हैं। बृहस्पति ने कहा है-"अनार, ईख पेरनेवाली कल, खानें, शिल्पियों के हाथ , गोदोहनी (मटकी), यन्त्रों से निकलने वाले तरल पदार्थ, बालों एवं स्त्रियों के कर्म (भोजन बनाना आदि) जो देखने में अशुद्ध से लगते हैं (बच्चे सड़क पर नंगे पैर घूमते रहते हैं), शुद्ध ही हैं। अपने बिस्तर, वस्त्र, पत्नी, बच्चा, जलपात्र अपने लिए शुद्ध होते हैं, किन्तु अन्य लोगों के लिए अशुद्ध हैं।" यही बात शंख ने भी कही है। शंख का कथन है कि वह चीज, जो वस्तु में स्वाभाविक रूप से लगे हुए मल को या किसी अशुद्ध पदार्थ के संसर्ग से उत्पन्न मल को दूर करती है, शुद्ध घोषित है। शंख-लिखित ने घोषित किया है कि जो वस्तुएँ अशुद्ध को शुद्ध करती हैं वे ये हैं-जल, मिट्टी, इंगुद, अरिष्ट (रीठा), बेल का फल, चावल, सरसों का उबटन, क्षार (रेह, सोडा), गोमूत्र, गोबर एवं कुछ लोगों के मत से एक स्थान पर संग्रह की हुई वस्तुएँ तथा प्रोक्षण अर्थात् जल-मार्जन।" मनु (५।११८), याज्ञ० (१११८४), विष्णु० (२३।१३) ने भी कहा है कि जब बहुत-से वस्त्र एवं अन्नों की ढेरी अपवित्र हो गयी हो तो जल छिड़कने से शुद्ध हो जाती है, किन्तु जब संख्या या मात्रा कम हो तो जल से धो लेना चाहिए। वह संख्या या मात्रा अधिक कही जाती है जिसे एक व्यक्ति ढो न सके (कुल्लूक, मनु ५।११८)।
गौतम (१।४५-४६), मनु (५।१२६=विष्णु० २३।३९) एवं याज्ञ० (१११९१) ने एक सामान्य नियम यह दिया है कि द्रव्यों एवं गन्दी वस्तु से लिप्त शरीर को शुद्ध करने के लिए जल एवं मिट्टी का प्रयोग तब तक करते रहना चाहिए जब तक गन्ध एवं गन्दी वस्तु दूर न हो जाय।२ देवल (अपरार्क, पृ० २७०) ने धूलिघूसरित पदार्थ, तेल, चिकनाई एवं अशुद्ध करने वाली गन्ध के मिट्टी, जल, गोबर आदि से दूरीकरण को शौच कहा है।
गौ० ध० सू० (१।२८-३३) ने द्रव्य-शुद्धि का वर्णन यों किया है-धातु की वस्तुओं, मिट्टी के पात्रों, लकड़ी
४६. आकाशं वायुरग्निश्च मेध्यं भूमिगतं जलम् । न प्रयुष्यन्ति बभरिच यशेषु चमसा यथा ॥ पराशर (१०॥ ४१)।
___४७. आमं मांसं घृतं क्षोत स्नेहाश्च फलसम्भवाः। अन्त्यभाण्डस्थिता ह्येते निष्क्रान्ताः शुचयः स्मृताः॥ चतुर्विशतिमत (परा० मा० २१, पृ० ११५)। और देखिए प्राय० विवेक (पृ० ३२८) एवं शु० को० (पृ० ३१८)।
४८. द्राक्षे यन्त्राकरकारहस्ता गोदोहनी यन्त्रविनिःसृतानि। बालैरय स्त्रीभिरनाष्ठतानि प्रत्यक्षद्रष्टानि शुचीनि तानि ॥ बृहस्पति (शुद्धिप्रकाश, पृ० १०६)।
४९. आत्मशय्या च वस्त्रं च जायापत्यं कमण्डलुः। आत्मनः शुचीन्येतानि परेषामशुचीनि च ॥ आप० स्मृति (११॥४); बौधा० (१।५।६१); अपराकं (पृ० २५७)।
५०. मलं संयोगजं तज्ज यस्य येनोपहन्यते । तस्य तच्छोषनं प्रोक्तं सामान्य द्रव्यशुसिकृत् ॥ शंख० (अपरार्क, पृ० २५६; दीपकलिका, यात० १११९१; मदनपारिजात, पृ० ४५१)।
५१. सर्वेषामापो मृदरिष्टकेंगुदबिल्वतण्डुलसापकल्कक्षारगोमूत्रगोमयादीनि शौचद्रव्याणि संहतानां प्रोक्षणमित्येके। शंखलिखितौ (चतुर्वर्ग०, जिल्द ३, भाग १, १० ८१७)।।
५२. लेपगन्धापकर्षणं शौचममेध्याक्तस्य । तवभिः पूर्व मवा च। गौ०५० सू० (११४५-४६) । यही बात वसिष्ठ० (३।४८) में भी है। यावन्नापैत्यमेध्याक्ताद् गन्धो लेपश्च तत्कृतः । तावन्मृद्वारि चादेयं सर्वास द्रव्यशुविषु ।। मनु (५।१२६-विष्णु० २३॥३९) ।
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