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धर्मशास्त्र का इतिहास संलग्न रहते हैं, ऐसा नहीं है कि वे अन्य धार्मिक कृत्यों, श्राद्ध एवं दानादि कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसी छूट पाते हैं (शुद्धिप्रकाश, पृ० ९५)। विष्णुधर्म० (२२१४८-५२) ने भी ऐसा ही कहा है। त्रिंशच्छ्लोकी (१८) ने ऐसे विशिष्ट कर्मों की एक लम्बी सूची दी है। कूर्मपुराण (उत्तराध, २३॥५७-६४) में इस विषय पर नौ श्लोक हैं, जिन्हें हारलता (पृ० ११४) ने उद्धृत किया है।
__ हमने बहुत पहले देख लिया है (गत अध्याय में) कि पारस्करगृह्यसूत्र (३॥१० 'नित्यानि विनिवर्तन्ते वैतानवर्जम्'), मनु (५।८४) एवं याज्ञ० (३।१७) ने व्यवस्था दी है कि उन लोगों को भी, जो मृत्यु के आशौच से युक्त हैं, श्रौताग्नियों के कृत्य नहीं बन्द करने चाहिए, प्रत्युत उन्हें स्वयं करते रहना चाहिए या किसी अन्य से कराते रहना चाहिए। इससे प्रकट होता है कि आशौच की स्थिति में भी कुछ धार्मिक कृत्य करने की अनुमति मिलती है।
धर्मसिन्धु (पृ० ५५२) का कथन है कि जब कोई अन्य विकल्प न हो या आपत्ति-काल हो तभी इस प्रकार के अपवाद का उपयोग करना चाहिए।
यह पहले ही उल्लिखित हो चुका है कि आशौच में प्रवृत्त लोगों से भी कुछ पदार्थ एवं सामग्रियाँ बिना किसी अशुद्धि के ग्रहण की जा सकती हैं। यह उन विषयों का, जो आशौच के नियमों की परिधि के बाहर हैं अर्थात् अपवाद हैं, तीसरा प्रकार है।
आशौच की परिधि में न आनेवाले विषयों के चौथे प्रकार में ऐसे व्यक्ति आते हैं जो किसी दोष के अपराधी हैं या जो कलंकी होते हैं। गौतम (१४।११) एवं शंख-लिखित ने व्यवस्था दी है कि उनके लिए सद्य:शौच होता है जो आत्महन्ता होते हैं और अपने प्राण महायात्रा (हिमालय आदि में जाकर), उपवास, कृपाण जैसे अस्त्रों, अग्नि, विष या जल से या फाँसी पर लटक जाने से (रस्सी से झूलकर) या प्रपात से गवाँ देते हैं।"
याज्ञ० (३१६) ने व्यवस्था दी है कि वे स्त्रियाँ, जो पाषण्ड-धर्मावलम्बी अथवा विधर्मी हो गयी हैं, जो किसी विशिष्ट आश्रम में नहीं रहतीं, जो (सोने आदि की) चोरी करती हैं, जो पतिघ्नी होती हैं, जो व्यभिचारिणी होती हैं, जो मद्य पीती हैं, जो आत्महत्या करने का प्रयल करती हैं, वे मरने पर जल-तर्पण के अयोग्य होती हैं और उनके लिए आशौच नहीं किया जाता। जहाँ तक सम्भव है, यह श्लोक पुरुषों के लिए भी प्रयुक्त होता है। यही बात मनु (५।८०-९०) में भी पायी जाती है। कूर्मपुराण (उत्तरार्च, २२१६०-६३) ने भी कहा है कि उसके लिए, जो अपने को अग्नि, विष आदि से मार डालता है, न तो आशौच होता है, न शवदाह होता है और न जल-तर्पण होता है। पतितों का शवदाह नहीं होता, उनके लिए अन्त्येष्टि, अस्थिसंचयन, रुदन, पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि नहीं करना चाहिए।"
२९. तत्तत्कार्येषु सत्रिवतिनृपनृपबद्दीक्षितत्विकस्वदेश-भ्रंशापत्स्वप्यनेकश्रुतिपठनभिषक्कारुशिल्प्यातुराणाम् । संप्रारम्धेषु दानोपनयनयजनश्रावयुद्धप्रतिष्ठा-चूगतीर्षियात्राजपपरिणयनाद्युत्सवेष्वेतदर्थे ।
शिच्छ्लोकी (१८)। नपवत् का अर्थ है नपसेवक। ३०. प्रायाग्निविषोदकोहन्धनप्रपतनश्वेच्यताम् । अथ शस्त्रानाशकाग्नि-रण-भृगु-अल-विष-प्रमापणेष्वेवमेव । शंखलिखितौ (हारलता, पृ० ११३); भृग्वग्निपाशकाम्भोभिर्भूतानामात्मघातिनाम् । पतितानां तु नाशौचं विद्युन्छस्त्रहताश्च ये॥ अग्निपुराण (१५७॥३२)। और देखिए वामनपुराण (१४१९९-१००)।
३१. पतिताना न वाहः। अग्निपुराण (१५९।२-४) का कथन है कि 'आत्मनस्त्यागिनां नास्ति पतितानां तथा किया। तेषामपि तथा गांगतोयेस्ना पतनं हितम् ॥ तेषां वत्तं जलं पानं गगने तत्प्रलीयते । अनुग्रहेण महता प्रेतस्य पतितस्य च । नारायणबलिः कार्यस्तेनानुग्रहमश्नुते॥'
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