________________
सद्यःशौच; पांच सालों में शौच का संकोच
११७५ यह पहले ही कहा जा चुका है कि ब्रह्मचारी अपने पिता, माता, उपाध्याय, आचार्य एवं गुरु; पांच व्यक्तियों को छोड़कर किसी अन्य की अन्त्येष्टि-क्रियाएँ (शव ढोना, जलाना आदि) नहीं कर सकता। वह अपने माता-पिता की अन्त्येष्टि करने एवं जल-पिण्ड आदि देने में आशौच से आबद्ध नहीं होता। किन्तु यदि वह उपर्युक्त पांच व्यक्तियों को छोड़कर किसी अन्य के लिए वैसा करता है तो उसे दस दिनों का आशौच एवं प्रायश्चित्त करना पड़ता है और पुनः उपनयन संस्कार करना होता है। ब्राह्मण को समावर्तन (वैदिक शिक्षक के यहां से लौटने ) के पश्चात् उन सभी लोगों के लिए, जो उसके विद्यार्थी-जीवन में मृत हुए थे, तीन दिनों का आशौच करना पड़ता था (मन ५।८८ एवं विष्णुधर्म० २२१८७)। गौतम (१४१४२-४४) का कथन है कि सामान्यतः (दांत निकलने एवं चूड़ाकरण के पूर्व) शिशुओं, देशान्तरगत लोगों, संन्यासियों, असपिण्डों की मृत्यु पर सम्बन्धी स्नान करके शुद्ध हो जाते हैं।" शुद्धिप्रकाश (पृ० ९३) का कथन है कि यद्यपि पुरोहित के लिए आशौच नहीं है, जैसा कि याज्ञ० (३।२८) ने कहा है, तथापि यज्ञिय पुरोहित एवं दीक्षित को सपिण्ड की मृत्यु पर स्नान करना पड़ता है। ब्रह्मचारी को भी अपने पिता या माता की शवयात्रा में भाग लेने पर स्नान करना पड़ता है, किन्तु संन्यासी को स्नान भी नहीं करना पड़ता (और उसके समय में ऐसी ही परम्परा भी थी)।
दसरे प्रकार के अपवाद ऐसे विषयों से सम्बन्धित हैं जिनमें व्यक्ति आशौच में रहने पर भी कुछ ऐसे कर्म कते हैं जिनसे उनको आशौच नहीं लग सकता, जिनके साथ वे व्यवहार में या सम्पर्क में आते हैं। उदाहरणार्थ, पराशर (३।२०-२१) का कथन है कि-शिल्पी (यथा चित्रकार या घोबी या रंगसाज), कारुक (नौकर-चाकर, यथा रसोइया आदि), वैद्य, दास-दासी, नाई, राजा एवं श्रोत्रिय सद्यःशौच घोषित हैं; इसी प्रकार व्रत (चान्द्रायण आदि) करने वाले, सत्र (गवामयन आदि) में लगे रहने के कारण पवित्र हो गये लोग, वह ब्राह्मण जो आहिताग्नि (श्रीताग्नियों को प्रतिष्ठित करनेवाला) है, सद्यःशौच करते हैं; राजा भी आशौच नहीं करता, और वह भी (यथा राजा का पुरोहित) जिसे राजा अपने काम के लिए वैसा नहीं करने देना चाहता।" आदिपुराण ने तर्क उपस्थित किया है कि शिल्पी, वैद्य आदि आशौच से क्यों निवृत्त हैं (जब कि उन्हें अपने विशिष्ट कार्य करने की छूट दी हुई है); ये व्यक्ति जो कार्य करते हैं उन्हें अन्य कोई नहीं कर सकता, कम-से-कम उतना अच्छा एवं शीघ्रता से नहीं कर सकता। यहां यह ज्ञातव्य है कि शिल्पी, वैद्य आदि के विषय में आशौचाभाव तभी होता है जब कि वे अपने व्यवसाय आदि में
२६. वालदेशान्तरितप्रवजितासपिण्डानां सद्यःशौचम् । राज्ञां कार्यविरोधात् । बाह्मणस्य च स्वाध्यायानिवत्यर्थम्। गौ० (१४।४२-४४)। पराशर (३।१०) एवं वामनपुराण (१४१९९-१००) में उपर्युक्त प्रथम सूत्र के शब्द श्लोक रूप में वर्णित हैं।
२७. शिल्पिनः कालका वैद्या दासीदासाश्च नापिताः। राजानः श्रोत्रियाश्चैव सद्यःशौचाः प्रकीर्तिताः॥ सवतः सत्रपूतश्च आहिताग्निश्च यो द्विजः। रामश्च सूतकं नास्ति यस्य चेच्छति पार्थिवः॥ पराशर (३।२०-२१)।
२८. तथा चादिपुराणे। शिल्पिनश्चित्रकारायाः कर्म यम्सापयन्स्यलम् । तत्कर्म नान्यो जानाति तस्माच्छुडाः स्वकर्मणि ॥ सूपकारेण यत्कर्म करणीयं नरेष्विह। तबन्यो नैव जानाति तस्माच्छयः स सूपकृत् ॥ चिकित्सको यत्कुरते तवन्येन न शक्यते। तस्माच्चिकित्सकः स्पर्श शुखो भवति नित्यशः॥बास्यो वासाश्च यत्किंचित् कुर्वन्त्यपि च लीलया। सवन्यो न क्षमः कतुं तस्मात्ते शुचयः सदा ॥राजा करोति यत्कन स्वप्नेभ्यन्यस्य तत्कथम् । एवं सति नृपः शुद्धः संस्पर्श मृतसूतके ॥ यत्कर्म राजभृत्यानां हस्त्यश्वगमनाविकम् । तन्नास्ति यस्मावन्यस्य तस्माते शुषयः स्मृताः॥ पराशरमाधवीय (१३२, पृ० २५५-२५६)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org