________________
धर्मशास्त्र का इतिहास युद्ध (उनके लिए जो अभी युद्धभूमि में जानेवाले हैं), (माक्रमण के कारण) देश में विप्लव के समय तथा दुर्भिक्ष या आपत्काल में (जब कि प्राणरक्षा के लिए कोई कहीं भी भोजन ग्रहण कर सकता है) सबःशीच होता है। गौतम० (१४१४३-४४) का कथन है कि राजाओं (नहीं तो उनके कर्तव्यों में बाधा पड़ेगी) एवं ब्राह्मणों (नहीं तो उनके शिक्षणकार्य अवरुद्ध हो जायेंगे) के लिए सद्यःशीच होता है। यही बात शंख-लिखित (राजा पायतनं सर्वेषां तस्मादनवरुद्धः प्रेतप्रसवदोषः) ने भी कही है (शुद्धिकल्पतरु, पृ०६२)। मनु(५।९३) में ऐसा आया है कि राजाओं, व्रतों एवं सत्रों (गवामयन आदि) में संलग्न लोगों को आशौच का दोष नहीं लगता, क्योंकि राजा इन्द्र का स्थान ग्रहण करता है और वे ब्रह्म के (जो सभी दोषों से मुक्त है) समान हैं। मनु (५।९४) आगे कहते हैं कि 'सद्यःशौच राजा की उस स्थिति के लिए व्यवस्थित है जो (पूर्व जन्मों के) सद्गुणों से प्राप्त होती है, और प्रजा की परिरक्षा करने के कारण प्राप्त होती है, अतः इस नियम की व्यवस्था उसकी इस स्थिति के कारण ही है। इसी प्रकार, गोमिलस्मृति (३१६४-६५, जिसे कात्यायन ने छन्दोगपरिशिष्ट के रूप में उद्धृत किया है) का कथन है कि सूतक में ब्रह्मचारी को अपने विशिष्ट कर्म (वेदाध्ययन एवं व्रत)नहीं छोड़ने चाहिए, दीक्षित होने पर यजमान को यज्ञ-कर्म नहीं छोड़ना चाहिए, प्रायश्चित्त करने वाले को कृच्छ आदि नहीं त्यागना चाहिए; ऐसे लोग पिता-माता के मरने पर भी अशुद्धि को प्राप्त नहीं होते।" कूर्मपुराण (उत्तरार्ध, पृ० २३३६१) का कथन है कि नैष्ठिक ब्रह्मचारी (जो जीवन भर वेदाध्ययन करते रहते हैं और गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट नहीं होते) एवं अन्य ब्रह्मचारी तथा यति (संन्यासी) के विषय में मृत्यु पर आशौच नहीं होता (देखिए हारलता, पृ० ११४; परा० मा० ११२, पृ० २५४; निर्णयसिन्धु, पृ० ५४३; लिंगपुराण, पूर्वार्ध ८९७७ एवं अत्रि ९७-९८)। मिता० (याज्ञ० ३।२८) का कथन है कि ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास के आश्रमों के विषय में किसी भी समय या किसी भी विषय में आशौच नहीं लगता; संन्यासियों एवं ब्रह्मचारियों को माता-पिता की मृत्यु पर वस्त्रसहित स्नान मात्र कर लेना चाहिए (धर्मसिन्धु, पृ० ४४२)। उन लोगों के विषय में, जो लगातार दान-कर्म में संलग्न रहते हैं या व्रतादि करते रहते हैं, केवल तभी आशौच नहीं लगता जब कि वे उन विशिष्ट कृत्यों में लगे रहते हैं, किन्तु जब वे अन्य कर्मों में व्यस्त रहते हैं या अन्य लोगों के साथ दैनिक कर्म में संयुत रहते हैं तब आशौच से मुक्ति नहीं मिलती। ऐसे ही नियम पराशर, (३।२१-२२) में भी पाये जाते हैं। मनु (५।९१) का उल्लेख करते हुए
२३. न रानामघदोषोस्ति वतिनां न च सत्रिणाम् । ऐन्न स्थानमुपासीना ब्रह्मभूता हि ते सदा ॥ रामो माहारिमके स्थाने सबःशौचं विधीयते । प्रजानां परिरक्षार्थमासनं चात्र कारणम् ॥ मनु (५।९३)। पहला श्लोक वसिष्ठ (१९। ४८) में भी पाया जाता है जिसे उसने यम का कहा है (फहर का संस्करण अशुद्ध है, उसे 'नाघदोषोस्ति' के रूप में शुद्ध कर देना चाहिए)। यही व्यवस्था है जिसके अनुसार राजा (चाहे क्षत्रिय या ब्राह्मण या शूर) आशौच से मुक्त है। विष्णधर्मसत्र (२२१४७-५२) मे यह कहते हए कि 'जब राजा राजा के सदश अपने कर्तव्यों को करते रहते हैं. तो वे माशौच से मुक्त रहते हैं, आशौच पर रुकावट लगायी है-'न रामा राजकर्मणि न अतिनां व्रते न सत्रिणी सत्रे न कारणां स्वकर्मणि न राजाज्ञाकारिणां तबिच्छया।'
२४. न त्यजेत्सूतके कर्म ब्रह्मचारी स्वकं स्वचित् । न दीक्षणात्परं यो नाच्छादि तपश्चरन् ॥ पितर्यपि मते नेषां दोषो भवति कहिंचित् । गोभिलस्मृति (३३६४-६५, हारलता, पृ० १७; अपरार्फ, पृ० ९१९ एवं शुविकल्प पृ. ६४)।
२५. सत्रिणां वतिनां सत्रेवते च शुद्धिनं कर्ममात्रे संव्यवहारे वा।....ब्राह्मविचतिः। एतेषां च त्रयाणामाथमिणी सर्वत्र शुद्धिः। विशेष प्रमाणाभावात् । मिता० (पान. ३२२८)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org