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अपमृत्यु या आत्महत्या करनेवालों के श्राद्धकर्म का विचार
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मिता० (याज्ञ० ३।६) ने व्यवस्था दी है कि 'यदि चाण्डाल से लड़ते हुए दुष्ट प्रकृति वाले मनुष्यों की मृत्यु हो जाय या जल, सर्प, ब्राह्मण, बिजली या तीक्ष्ण दन्त वाले पशुओं (व्याघ्रादि) द्वारा मृत्यु हो जाय और उन्हें (जो इस प्रकार जानबूझकर प्राण गँवाते हैं) जल- पिण्ड आदि दिये जायें तो वे (जल, पिण्ड) उनके पास नहीं पहुँचते और अन्तरिक्ष में ही नष्ट हो जाते हैं।' ये शब्द उस मृत्यु से सम्बन्धित हैं जो व्याघ्र, सर्प आदि के साथ क्रोधपूर्वक लड़ने से होती है या क्रोधवश या चिन्ताकुल होने पर जल आदि द्वारा आत्महत्या से होती है । किन्तु कोई असावधानी या प्रमाद के कारण या जल द्वारा मर जाय तो अंगिरा ने उसके लिए जल-तर्पण एवं आशौच की व्यवस्था दी है।" यही बात ब्रह्मपुराण ( हरदत्त, गौतम १४ । ११), शुद्धिप्रकाश ( पृ० ५६-५७), निर्णयसिन्धु ( पृ० ५५० ) में भी कहीं गयी है और इतना जोड़ दिया गया है कि यदि कोई पतितों को अनुग्रहवश जल या श्राद्ध देता है या उनका शवदाह करता है तो उसे प्रायश्चित्त ( यथा दो तप्तकृच्छ ) करना पड़ता है।
यदि कोई आहिताग्नि युद्ध करते हुए चाण्डालों के हाथ से मर जाय, या आत्महत्या कर ले तो उसका शव शूद्रों द्वारा जलाया जाना चाहिए, किन्तु मन्त्रों का उच्चारण नहीं होना चाहिए, और गोमिलस्मृति ( ३।४९-५१) आया है कि उसके यज्ञपात्र एवं श्रौताग्नियाँ समाप्त कर दी जानी चाहिए। यद्यपि आत्महत्या सामान्यतः वर्जित थी, किन्तु स्मृतियों (यथा अत्रि २१८-२१९ ) एवं पुराणों ने कुछ अपवाद दिये हैं, यथा— अत्यधिक बूढ़े लोग (लगभग ७० वर्ष के), अत्यधिक दुर्बल लोग जो अपने शरीर को शुद्ध रखने के नियमों का पालन न कर सकें, या वे लोग जो इन्द्रिय-भोग की इच्छा से हीन हों, या वे लोग जो सारे कार्य एवं कर्तव्य कर चुके हों, महाप्रस्थान कर सकते हैं या प्रयाग में मर सकते हैं। इस विषय में देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय २७ । यदि कोई शास्त्रानुमोदित ढंग से अपने को मार डालता है तो यह पाप नहीं कहा जा सकता और उसके लिए आशौच, जल-तर्पण एवं श्राद्ध किये जाते हैं । यह ज्ञातव्य है कि महाप्रस्थान करना, प्रपात से गिरकर या अग्नि द्वारा मर जाना बूढ़ों के लिए कलियुग में वर्जित है । देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय ३४ ।
मिता० (याज्ञ० ३।६) ने वृद्ध-याज्ञवल्क्य एवं छागलेय को उद्धृत कर कहा है कि शास्त्र के नियमों के विरुद्ध आत्महत्या करने पर एक वर्ष के उपरान्त नार । यणबलि करनी चाहिए और उसके उपरान्त श्राद्धकर्म कर देना चाहिए । मिता० (याज्ञ० ३।६) ने विष्णुपुराण पर निर्भर होकर नारायणबलि का वर्णन यों किया है— मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को विष्णु एवं यम की पूजा करके दक्षिणाभिमुख होकर दर्भों के अंकुरों को दक्षिण ओर करके मघु, घृत एवं तिल से मिश्रित दस पिण्ड दिये जाने चाहिए और मृत व्यक्ति का विष्णु के रूप में ध्यान करना चाहिए, उसके नाम और गोत्र का उच्चारण करना चाहिए, पिण्डों पर चन्दन आदि रखना चाहिए और पिण्डों को हिला देने तक के सारे कृत्य करके उन्हें नदी में डाल देना चाहिए, उन्हें पत्नी या किसी अन्य को नहीं देना चाहए। उस दिन की रात्रि को ब्राह्मणों को विषम संख्या में आमन्त्रित करना चाहिए, उपवास करना चाहिए और दूसरे दिन विष्णु की पूजा करनी चाहिए, मध्याह्न में ब्राह्मणों के पाद-प्रक्षालन से लेकर एकोद्दिष्ट श्राद्ध की विधि के अनुसार उनकी ( भोजन आदि से ) सन्तुष्टि तक के सारे कृत्य करने चाहिए । इसके उपरान्त उल्लेखन ( रेखाएँ खींचना ) से लेकर अवनेजन (जल सिंचन) तक के कृत्यों को पिण्डपितृयज्ञ की विधि के अनुसार मौन रूप से करना चाहिए। विष्णु, ब्रह्मा, शिव एवं यम को ( उनकी मूर्तियों को) उनके सहगामियों के साथ चार पिण्ड देने चाहिए, मृत को नाम गोत्र से स्मरण करना चाहिए और विष्णु का
३२. यदि कश्चित्प्रमादेन स्त्रियेताग्न्युवकादिभिः । तस्याशौचं विधातव्यं कर्तव्या चोदकक्रिया ॥ अंगिरा (मिता०, याज्ञ० ३।६) । औशनसस्मृति (अध्याय ७) में भी ऐसा ही श्लोक है।
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