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मरणाचाच
११६५ दिन का आधीच निश्चित किया गया है। गुरु (जो वैदिक मन्त्रों की शिक्षा देता है) की मृत्यु पर तीन दिनों का और जब वह किसी अन्य ग्राम में मरता है तो एक पक्षिणी का आशीच लगता है। उस शिक्षक की मृत्यु पर जो व्याकरण, ज्योतिष एवं वेदों के अन्य अंगों की शिक्षा देता है, एक दिन का आशौच करना पड़ता है। ऐसे ही नियम शिष्य, ऋत्विक (यज्ञिय पुरोहित), यजमान, आश्रित श्रोत्रिय, सहपाठी, मित्र की मृत्यु पर भी हैं जिन्हें हम छोड़ रहे हैं, क्योंकि वे अब अनुपयोगी हैं। देखिए गौ० (१४।१९-२०) जो सहाध्यायी (सहपाठी) या आश्रित श्रोत्रिय की मृत्यु पर एक दिन का माशीच निर्धारित करता है।
आचार्य एवं ऋत्विक की मृत्यु-सम्बन्धी आशौच-व्यवस्था से प्रकट होता है कि प्राचीन काल में शिक्षकों एवं शिष्यों में कितना गहरा सम्बन्ध था जो अधिकांशतः रक्त-सम्बन्ध के सदृश था।
___ जब संन्यासी मरता था तो उसके सभी सपिण्ड स्नान-मात्र कर लेते थे और कुछ नहीं करते थे। इसके विपरीत यति एवं ब्रह्मचारी को आशौच नहीं मनाना पड़ता था। मनु (५।८२), याज्ञ० (३।२५), विष्णु० (२२।२५) एवं शंख० (१५।१५) ने व्यवस्था दी है कि देश के राजा की मृत्यु पर जिस दिन या रात्रि में वह मरता है, उसके दूसरे दिन या रात्रि तक आशौच मनाया जाता है।
जब तक ग्राम से शव बाहर नहीं चला जाता, सारा ग्राम आशौच में रहता है। आप० घ० सू० (१।३।९।१४) के मत से ग्राम में शव के रहने पर वेद का अध्ययन रोक दिया जाना चाहिए। स्मृतिमुक्ताफल (पृ० ५४१) ने कई स्मृतियों का मत देते हुए कहा है कि जब तक ग्राम से शव बाहर न चला जाय, भोजन, वेदाध्ययन एवं यज्ञ नहीं करना चाहिए। किन्तु जब उस ग्राम में ४०० से अधिक ब्राह्मण निवास करते हों तो यह नियम नहीं लागू होता। धर्मसिन्धु (पृ० ४३२) ने भी यही कहा है, किन्तु इतना जोड़ा है कि कसबे में इस नियम की छूट है।
पार्मिक कृत्य-सम्बन्धी शुद्धि इतनी दूर तक बढ़ गयी थी कि शुद्धितत्त्व (निर्णयसिन्धु ३, पृ० ५२८) ने इतना तक कह डाला कि यदि ब्राह्मण के घर में कोई कुत्ता मर जाय तो घर १० दिनों के लिए अशुद्ध हो जाता है, और यदि किसी ब्राह्मण के घर में कोई शूद्र, पतित या म्लेच्छ मर जाय तो वह घर क्रम से एक मास, दो मासों या चार मासों के लिए अशुद्ध हो जाता है, किन्तु यदि उस घर में कोई श्वपाक मर जाय तो उसे छोड़ ही देना चाहिए।
अतिकान्ताशौच (निर्धारित अवधियों के उपरान्त जनन एवं मरण की जानकारी से उत्पन्न आशौच) का सामान्य नियम तो यह है कि यदि कोई व्यक्ति विदेश में रहता हुआ अपने सपिण्डों का जनन या मरण सुनता है तो उसे दस दिनों (उसके लिए निर्धारित दिनों के अनुसार) तक आशौच नहीं मनाना पड़ता, केवल शेष दिनों का ही आशीच होता है (देखिए मनु ५।७५; याज्ञ० ३१२१; शंख १५।११; पारस्कर गृ० (३।१०)। आशौच व्यक्ति की क्रियाओं में अवरोध उपस्थित करता है। इसी से लोग दूसरे स्थान में रहने वाले सम्बन्धियों के प है और किसी निश्चित तिथि पर ही खोलने को कहते हैं (विशेषतः सपिण्ड की मृत्यु के दसवें दिन)। प्रत्येक व्यक्ति ऐसे निर्देश का तात्पर्य समझता है और इस छप के द्वारा असुविधा से बचाव होता है तथा शास्त्रों की आशाएँ पालित-सी समझी जाती हैं । यदि कोई पुत्र अपने पिता या माता की मृत्यु का सन्देश सुनता है तो उसे
१२. आचार्यपत्नीपुत्रोपाध्यायमातुलश्वशुरश्वशुर्यसहाध्यायिशिष्येष्वतीतेष्वेकरात्रेण। विष्णुधर्मसूत्र (२२१४४)। श्वशुर्य का अर्थ है साला। मनु (५।८०-८१) ने आचार्य, उसकी पत्नी एवं पुत्र तथा श्रोत्रिय की मृत्यु पर तीन दिनों के बाशौच की व्यवस्था की है। यही बात गौ० (१४१२६) में भी पायी जाती है।
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