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धर्मशास्त्र का इतिहास ससुराल में मरने पर श्वशुर एवं सास को तीन दिनों का आशौच करना पड़ता है। साले के मरने पर (यदि वह उपनयनसंस्कृत हो) एक दिन का आशौच होता है, किन्तु यदि साला उपनयन संस्कार-विहीन हो या किसी अन्य ग्राम में मर जाय तो केवल स्नान कर लेना पर्याप्त है।
मौसी के मरने पर व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) को एक पक्षिणी का आशौच करना चाहिए; यही नियम फूफी के मरने पर लागू होता है। किन्तु यदि फूफी पिता की विमाता-बहिन हो तो स्नान ही पर्याप्त है। भतीजे के मरने पर फूफी स्नान करती है। यदि फूफी या मौसी व्यक्ति के घर में मर जाय तो आशौच तीन दिनों का होत
बन्धुओं के विषय में, जिन्हें मिता० (याज्ञ० २।१३५).ने भिन्नगोत्र सपिण्ड कहा है और जो तीन प्रकार के होते हैं, आशौच एक पक्षिणी का होता है, जब कि बन्ध उपनीत (उपनयन संस्कार यक्त) हो: किन्त: संस्कार नहीं किये रहता तो आशौच एक दिन, किन्तु जब बन्ध व्यक्ति के घर में मरता है तो आशौच तीन दिनों का होता है। जब फूफी की लड़की तथा अन्य बन्धुओं की लड़की विवाहित रूप में मरती है तो आशौच एक दिन का होता है, किन्तु जब वह अविवाहित रूप में मरती है तो केवल स्नान पर्याप्त होता है। तीन प्रकार के बन्धुओं में स्वयं व्यक्ति एवं उसके तीन आत्मबन्धुओं के बीच में एक-दूसरे की मृत्यु पर आशौच होता है, किन्तु पितृबन्धुओं एवं मातृबन्धुओं में दूसरा नियम पाया जाता है। यदि मातृबन्धुओं में कोई मरता है तो उसे आशोच करना पड़ता है जिसका वह बन्धु होता है, उसके पितृबन्धु एवं मातृबन्धु आशौच नहीं मानते।
यदि दत्तक पुत्र मर जाता है तो वास्तविक (असली) पिता एवं गोद लेनेवाले पिता को तीन दिनों का आशौच करना पड़ता है (व्यवहारमयूख यह नियम नहीं मानता) और सपिण्डों को केवल एक दिन का।
यदि गोद लेनेवाला या वास्तविक पिता मर जाता है तो दत्तक पुत्र को तीन दिनों का आशौच मानना पड़ता है किन्तु मृत सपिण्डों के लिए केवल एक दिन का। दत्तक के पुत्र या पौत्र की मृत्यु पर वास्तविक एवं गोद लेनेवाले पिता के सपिण्ड केवल एक दिन का आशौच मानते हैं और ऐसा ही उनकी मृत्य पर दत्तक के पुत्र या पौत्र करते हैं। ये नियम तभी लागू होते हैं जब कि दत्तक पुत्र गोद लेनेवाले का सपिण्ड अथवा समानोदक नहीं होता और जब गोद जानेवाला अपने जन्म-कुल में ही रहता है। किन्तु जब सगोत्र सपिण्ड या समानोदक दत्तक होता है तो क्रम से आशौच १० दिनों या तीन दिनों का होता है।
जब आचार्य मरता है तो शिष्य को तीन दिनों के लिए आशौच करना पड़ता है, किन्तु यदि वह दूसरे ग्राम में मरता है तो एक दिन का (गौतम० १४।२६ एवं ५२ तथा मनु ५।८०)। आचार्यपत्नी एवं आचार्यपुत्र की मृत्यु पर एक
१०. बन्धु तीन प्रकार के होते हैं-आत्मबन्धु, पितृबन्धु एवं मातृबन्ध । इन बन्धु-प्रकारों के तीन उदाहरण तीन श्लोकों (बौधायन या शातातप द्वारा प्रणीत) में दिये हुए हैं-आत्मपितृष्वसुः पुत्रा आत्ममातृण्वसुः सुताः। आत्ममातुलपुत्राश्च विजेया आत्मबान्धवाः ॥ पितुः पितृष्वसुः पुत्राः पितुर्मातृष्वसुः सुताः। पितृमातुलपुत्राश्च विशेषाः पितृवान्धवाः ॥ मातुः पितृष्वसुः पुत्रा मातुर्मातुष्वसुः सुताः। मातुर्मातुलपुत्राश्च विजेया मातृबान्धवाः॥ मिता० (यान० २।१३५); व्यवहारनिर्णय (पृ० ४५५); परा० मा० (३, पृ० ५२८); मदनपा० (१० ६७५) । अन्य विस्तारों के लिए देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय २९।
११. मनु (२।१४०) ने उसे ही आचार्य कहा है जो शिष्य का उपनयन करता है और उसे कल्पसूत्र एवं उपनिषदों के साथ वेव पढ़ाता है। मनु (२३१४३) ने उस व्यक्ति को ऋत्विक् कहा है जो अग्नयाधान, पाकयज्ञों एवं अग्निष्टोम बैंसे पूत यज्ञों के सम्पादन के लिए चुना जाता है।
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