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धर्मशास्त्र का इतिहास
वाला एक दिन में शुद्ध हो जाता है। मिताक्षरा का कथन है कि हमें यह अस्वीकृत कर देना चाहिए, क्योंकि यह अन्य स्मृतियों के विरोध में पड़ जाता है और लोग इसका अनुमोदन नहीं करते। मिताक्षरा के लेखक विज्ञानेश्वर (लगभग ११०० ई०) के बहुत से वर्णित नियम ५०० वर्षों के उपरान्त परिवर्तित हो गये, जैसा कि निर्णयसिन्ध (सन् १६१२ ई० में प्रणीत) ने कहा है।
मिताक्षरा (याज्ञ० ३.१८) ने घोषित किया है कि जब दो वर्ष से कम अवस्था का बच्चा भर जाता है तो केवल माता-पिता १० दिनों का आशौच करते हैं और वे लोग अन्य सपिण्डों के लिए अस्पृश्य होते हैं। निर्णयसिन्धु (पृ० ५१७) ने लिखा है कि उसके समय में विज्ञानेश्वर की बातें लोकाचार के विरुद्ध पड़ गयीं, इसी प्रकार स्मृत्यर्थसार ने भी विज्ञानेश्वर की बातें नहीं मानी हैं।
उपर्यक्त परिस्थिति के कारण स्मृतियों, पुराणों एवं निबन्धों में वर्णित बातों को लेकर आशौच के अन्तर्गत बहुत से विषयों के बारे में कुछ विशेष कहना उपयोगी सिद्ध नहीं होगा। इस विषय में बहुत-से निबन्धों का प्रणयन हुआ है। निम्नलिखित विवेचन के लिए निम्न निबन्धों का सहारा लिया गया है-प्रथमतः वे निबन्ध हैं जो पद्य में हैं। आशौचाष्टक (वररुचि द्वारा लिखित) ने आठ स्रग्धरा श्लोकों में इस विषय पर लिखा है। इसके एक अज्ञात टीकाकार हैं जिन्होंने गौतमधर्मसूत्र के मस्करी नामक भाष्यकार की चर्चा १०३५ पर की है। आशौचदशक या दशश्लोकी नामक पुस्तक, जो विज्ञानेश्वर की लिखी हुई कही जाती है, बड़ी प्रसिद्ध रही है। इस पर भी बहुत-सी टीकाएँ हैं, हरिहर वाली टीका सबसे प्राचीन है। भण्डारकर ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट (पूना) की पाण्डुलिपियों के संग्रह में इसकी कई प्रतियाँ हैं, जिनमें दो संवत् १५३९ एवं १५७९ में लिखी गयी थीं, इनमें यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि यह ग्रन्थ विज्ञानेश्वर-योगीन्द्र का लिखा हुआ है। लक्ष्मीधर के कल्पतरु में शुद्धि पर एक अध्याय है। स्मृतिचन्द्रिका का आशौचकाण्ड स्व. डा० शाम शास्त्री द्वारा सम्पादित हुआ है (मैसूर यूनि० संस्कृत-प्रकाशन, सं० ५६)। रघुनाथ की टीका के साथ त्रिंशच्छ्लोकी में आशौच पर ३० स्रग्धरा छन्द हैं। कौशिकादित्य की षडशीति (अनुष्टुप् छन्द में ८६ पद्य) विनायक उर्फ नन्द पण्डित (सन् १६०० ई० के लगभग) की शुद्धिचन्द्रिका नामक टीका के साथ चौखम्भा (वाराणसी) से प्रकाशित हुई है। इसी प्रकार शुद्धिकौमदी (गोविन्दानन्द कृत), रघुनन्दन कृत शुद्धितत्त्व, शुद्धिप्रकाश (मित्र मिश्र के वीरमित्रोदय का एक अंश), नीलकण्ठ का शुद्धिमयूख एवं वैद्यनाथ का स्मृतिमुक्ताफल अन्य उपयोगी ग्रन्थ हैं। इतने ग्रन्थों के प्रणयन से विदित होता है कि मध्य काल के ब्राह्मण जन्म एवं मरण से उत्पन्न आशौच को अतीव महत्त्व देते थे।
आशौचावधियाँ कई प्रकार की परिस्थितियों पर आधारित थीं। जन्म एवं मरण की अशुद्धि में भिन्नता मानी गयी थी। इसी प्रकार मृत की अवस्था, अर्थात् वह शिशु है या पुरुष है या स्त्री है, आशौचावधि के लिए परिगणित होती थी। इतना ही नहीं, आशौचावधि मृत के उपनयन-संस्कार से युक्त होने या न होने पर भी निर्भर थी। यह जाति पर भी आधारित थी और यह भी देखा जाता था कि मृत्यु सम्बन्धी के पास हुई है या कहीं दूर। यह सम्बन्धी की दूरी पर भी. निर्मर थी, और यह भी देखा जाता था कि कितने दिनों के पश्चात् जन्म या मृत्यु का समाचार सम्बन्धी के कानों तक पहुँचा। निम्न बातों में अशुद्धि की तीव्रता विभिन्न रूपों में देखी जाती थी-सूतिका (हाल में बच्चा जनी हुई नारी), रजस्वला, मरणाशुद्धि, जन्माशुद्धि (अन्तिम में तीव्रता कम मानी जाती थी)।
दक्ष (५।२-३) ने आशौच के दस भेद बताये हैं, यथा-तात्कालिक शौच वाला (केवल स्नान करने से समाप्त), एक दिन, तीन दिन, चार दिन, छः दिन, दस दिन, बारह दिन, एक पक्ष, एक मास एवं जीवन भर। दक्ष ने इन सभी
७. सद्यःशौचं तथैकाहस्यहश्चतुरहस्तथा। षड़वशद्वादशाहाश्च पक्षो मासस्तथैव च। मरणान्तं तथा
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