________________
जननाशौच एवं मरणाशीच
११६१ आशौचावधियों को समझाया है। मरणान्त आशौच ( वह आशौच जो जलकर भस्म हो जाने तक चले ) के विषय में दक्ष ( ६।८-१० ) का कथन है कि जो लोग बिना स्नान किये भोजन करते हैं या बिना देवाहुति दिये या बिना दान दिये ऐसा करते हैं वे जीवन भर आशौच में रहते हैं। जो व्याधित (सदा के लिए रोगी) है, कदर्य (लोभी, अर्थात् जो धन के लोभ से अपने लिए, पत्नी, पुत्र एवं धार्मिक कृत्यों के लिए व्यय नहीं करता) है, ऋणी (जिसने देवों, ऋषियों एवं पितरों का ऋण नहीं चुकाया हो) है, क्रियाहीन ( नित्य एवं नैमित्तिक धार्मिक कृत्यों से च्युत) है, मूर्ख है और अपनी पत्नी की मुट्ठी में है, व्यसनासक्त-चित्त (जुआरी, वेश्यागामी आदि ) है, नित्य पराधीन (राजा का नौकर आदि) है तथा श्रद्धात्याग - विहीन ( जो अविश्वासी या अधार्मिक एवं दया- दाक्षिण्य से हीन) है, वह मरणान्त या भस्मान्त ( भस्म हो जाने अर्थात् मर जाने के उपरान्त चिता पर राख हो जाने ) तक अशुद्ध रहता है।' इन शब्दों को यथाश्रुत शाब्दिक अर्थ में नहीं लेना चाहिए; केवल इतना ही समझना चाहिए कि इस प्रकार के लोगों का संसर्ग नहीं करना चाहिए ( अर्थात् यह केवल अर्थवाद है जो भर्त्सना मात्र प्रकट करता है) ।
अब हम जन्म होने पर उत्पन्न आशौच का वर्णन करेंगे।
वैदिक काल में भी जन्म पर सूतक मनाया जाता था और वह दस दिनों तक चलता था । देखिए ऐतरेय ब्राह्मण ( ३३।२) में वर्णित शुनःशेप की गाथा, जहाँ एक उक्ति आयी है; 'जब पशु दस दिनों का हो जाता है तो वह शुद्ध माना जाता है ( और यज्ञ में बलि के योग्य हो जाता है) ।' और देखिए तैत्तिरीय ब्राह्मण (२|१|१|३) जहाँ आया है- 'अतः बछड़ा उत्पन्न हो जाने पर लोग गाय का दूध दस दिनों तक नहीं ग्रहण करते । "
गर्भ के उपरान्त चार महीनों के गर्भ गिरने को स्त्राव कहा जाता है, पाँचवें या छठे महीने के गर्भ गिरने को पात तथा सातवें या इसके पश्चात् के महीनों के गर्भ गिरने को प्रसूति या प्रसव कहा जाता है (पराशर, ३।१६ एवं षडशीति, श्लोक ९) । स्राव में माता को तीन दिनों का सूतक लगता है, पात में उतने ही दिनों का सूतक लगता है जितने महीनों पश्चात् वह होता है (५ या ६ दिनों का) । यह आशौच माता को न छूने तक है, स्राव में केवल पिता को भी अशुद्धि लगती है किन्तु पात में पिता के साथ सपिण्डों को भी तीन दिनों तक (देखिए मदनपारिजात, पृ० ३८० - ३८१) सूतक लगता है। किन्तु यह मृत्यु की अशुद्धि के समान नहीं है। ये नियम सभी वर्णों में समान हैं। किन्तु यदि सातवें मास के उपरान्त कभी भी भ्रूण मरा हुआ निकलता है तो सभी वर्णों में अशुद्धि पिता तथा सपिण्डों के लिए दस दिनों की या याश० (३।२२) के मत से चारों वर्णों में क्रम से १०, १२, १५ एवं ३० दिनों की होती है, किन्तु समानोदक लोग केवल
चाम्यद, वश पक्षास्तु सूतके । दक्ष ( ६।२-३ ) । देखिए विश्वरूप (याज्ञ० ३।३०; कल्पतरु (शुद्धि, पृ० ५ ) ; अपरार्क ( १० ८९४ ) ; परा० मा० (११२, पृ० २०७ ) ।
८. अस्नात्वा चाप्यहुत्वा च ह्यबस्वा ये तु भुञ्जते । एवंविधानां सर्वेषां यावज्जीवं तु सूतकम् ॥ व्याषितस्य कवर्यस्य ऋणग्रस्तस्य सर्वदा । क्रियाहीनस्य मूर्खस्य स्त्रीजितस्य विशेषतः । व्यसनासक्तचित्तस्य पराधीनस्य नित्यशः । भात्यागविहीनस्य भस्मान्तं सूतकं भवेत ॥ दक्ष ( ६।८-१० ; विश्वरूप, याज्ञ० ३।३०; कल्पतर, शुद्धि, पृ० १५; हारलता, पु० १४; अपरार्क, पृ० ८९३) । षडशीति का अन्तिम श्लोक उपर्युक्त प्रथम श्लोक के समान ही है। कूर्मपुराण (उत्तर, २३ ९) ने व्यवस्था दी है— 'क्रियाहीनस्य मूर्खस्य महारोगिण एव च । यथेष्टाचरणस्येह मरणान्तमशौचकम् ॥' ( हारलता, पु० १५) ।
९. अजनि वं ते पुत्रो यजस्व माऽनेनेति । स होवाच यदा वै पशुनिर्वशो भवत्यथ स मेध्यो भवति । ऐ० वा० (9313) 1 asancesi oni zurzeiti gefa 1 ão mo (2181813) |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org