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माशौच (भूतक) निर्णय विभिन्न मत पाये जाते हैं और वे मध्य काल की परम्पराओं से इतने भिन्न हैं कि मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२२) ने चारों वर्गों के लिए आशौच से सम्बन्धित अवधियों को पराशर, शातातप, वसिष्ठ एवं अंगिरा से उद्धत कर उनका क्रम बैठाने में असमर्थता प्रकट की है और उद्घोष किया है कि उसके समय की प्रथाओं एवं ऋषियों के आदेशों में भिन्नता है।'मदनपारिजात (पृ० ३९२) मिताक्षरा का समर्थन करता है और इस विरोध से हटने की अन्य विधियां उपस्थित करता है। विभिन्न स्मृतियों ने एक ही समस्या को किस प्रकार लिया है, इसके विषय में दो उदाहरण दिये जा सकते हैं। अत्रि (८३), पराशर (३५) एवं दक्ष (६।६) ने व्यवस्था दी है कि वैदिक अग्निहोत्री ब्राह्मण एवं वह ब्राह्मण जिसने वेद पर अषिक. प्राप्त कर लिया है, जन्म-मरण के आशौच से एक दिन में मुक्त हो सकता है। जिसने वेद पर तो अधिकार प्राप्त कर लिया है, किन्तु श्रौताग्नियां नहीं स्थापित की हैं, वह तीन दिनों में तथा जिसने दोनों नहीं किये हैं, वह दस दिनों में मुक्त होता है । मनु (५।५९) ने कई विकल्प या छूटें दी हैं, यथा १० दिन, ४ दिन, ३ दिन एवं एक दिन, किन्तु यह नहीं व्यक्त किया है कि ये अवधियाँ किनके लिए हैं। बहस्पति (हारलता, पृ०५, हरदत्त, गौतम० के १४।१ की टीका में) के मत से वेदज्ञ एवं आहिताग्नि तीन दिनों में शुद्ध हो जाता है, वेदज्ञ किन्तु श्रौताग्निहीन पांच दिनों में तथा वह जो केवल ब्राह्मण है (अर्थात् न तो अग्निहोत्री है और न वेदज्ञ या श्रोत्रिय है) १० दिनों में शुद्ध होता है। शांखा० श्री० एवं मनु ने दृढतापूर्वक कहा है कि आशौच के दिनों को आलस्य द्वारा बढ़ाना नहीं चाहिए (मनु ५।८४)। यह सम्भव है कि श्रोत्रिय लोग अशुद्धि बहुत कम दिनों तक मनाने लगे हों और उनके पड़ोसी लोग उनके इस अधिकार को मानने को सन्नद्ध न हुए हों, अतएव आगे चलकर सभी के लिए १० दिनों की अशुद्धि की व्यवस्था कर दी गयी, चाहे लोग विद्वान् हों या न हों और अशुद्धि-सम्बन्धी छूट कलिवों में गिन ली गयी (देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय ३४)।
____ अशुद्धि के दिन जाति पर भी आधारित थे, किन्तु इस विषय में भी विभिन्न मत मिलते हैं। मनु (५।८३), दक्ष (६७), याज्ञ० (३।२२), अत्रि (८५), शंख (१५।२-३), मत्स्यपुराण (१८०२-३), ब्रह्मपुराण (२२०१६३), विष्णु० (२२।१-४) आदि ने ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों के लिए कम से १०, १२, १५ एवं एक मास की अशुद्धि की व्यवस्था दी है। याज्ञ० (३।२२) ने सदाचारी शूद्र के लिए केवल १५ दिनों की अशुद्धि-अवधि दी है। गौतम० (१५।१-४) ने चारों वर्गों के लिए क्रम से १०, ११, १२ (या १५ दिन) एवं एक मास की आशौचावधि दी है, किन्तु वसिष्ठ (४।२७-३०) ने क्रम से १०, १५, २० एवं एक मास की अवधियाँ दी हैं। स्व० प्रो० डी० आर० भण्डारकर ने अपने "नागर ब्राह्मण एवं बंगाल के कायस्थों" के विषय के एक लेख में विरोध प्रकट किया है कि कायस्थों को (सामाजिक अत्याचार के कारण) अब भी एक मास का आशौच रखना पड़ता है, मानो वे साधारण शूद्र हैं (इण्डियन ऐण्टिक्वेरी, १९३२, पृ०७१)। दूसरी ओर अंगिरा (मिता०, याज्ञ० ३।२२) ने शातातप का मत प्रकाशित किया है कि सभी वर्ण १० दिनों में आशौच से निवृत्त हो जाते हैं, चाहे वह आशौच जन्म के कारण हो या मरण से उत्पन्न हुआ हो। यह अवलोकनीय है कि बंगाल को छोड़कर भारत के अधिकांश सभी भागों में शूद्रों एवं अन्य वर्गों में मृत्यु का आशौच केवल दस दिनों का मनाया जाता है। पराशर० (३।९७, मिता०, याज्ञ० ३।१८) ने व्यवस्था दी है कि एक ही पूर्वज की चौथी पीढ़ी में एक सपिण्ड १० दिनों में शुद्ध हो जाता है, पांचवीं पीढ़ी वाला ६ दिनों में, छठी पीढ़ी वाला ४ दिनों में और सातवीं पीढ़ी
६. इत्येवमनेकोच्चावचाशौचकल्पा दर्शिताः। तेषां लोके समाचाराभावानातीव व्यवस्थाप्रदर्शनमुपयोगीति नात्र व्यवस्था प्रदर्श्यते। मिता० (३।२२); लोकसमाचारादनादरणीयमिति केचन । अथवा देशाचारतो व्यवस्था। उत गुणववगुणवद्विषये यथाक्रम न्यूनाधिककल्पाश्रयेण निर्वाहः। किंवा आपदनापभेदेन व्यवस्था। सदनपारि० (पृ. ३९२)।
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