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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास हीनता, अमोज्यानता (ऐसी स्थिति जिसमें किसी का भोजन खाने के अयोग्य समझा जाय), अस्पृश्यता एवं दानादि देने की अनधिकारिता के अर्थ में लिया है। अपेक्षाकृत एक पूर्व लेखक भट्टाचार्य ने 'शुद्धि' को 'पाप क्षय करने या धार्मिक कर्म करने की योग्यता के अर्थ में लिया है। स्मृतिचन्द्रिका ने इसे मान लिया है किन्तु षडशीति (पृ० २॥३) के टीकाकार नन्द पण्डित ने इस परिभाषा को अस्वीकृत कर दिया है। मिता० (याज्ञ० ३३१८) ने भी 'आशौच' की दो विशेषताएं बतायी हैं; यह धार्मिक कृत्यों के सम्पादन का अधिकार छीन लेता है तथा यह व्यक्ति को अस्पृश्य बना देता है। स्मृतिमुक्ताफल ने इस व्याख्या का अनुमोदन किया है। अपने शुद्धिविवेक में रुद्रधर ने कहा है कि शुद्धि वह विशेषता है जो सभी धर्मों के सम्पादन की योग्यता या अधिकार प्रदान करती है और 'अशुद्धि वह विशेषता है जो 'शुद्धि' की विरोधी है और जो किसी सपिण्ड के जन्म आदि के अवसर से उत्पन्न होती है। आशौच के दो प्रकार हैं; जन्म से उत्पन्न, जिसे जननाशौच या सूतक कहा जाता है, तथा मरण से उत्पन्न, जिसे शावाशौच, मृतकाशौच या मरणाशौच कहा जाता है।' 'शाव' शब्द 'शव' से बना है। 'सूतक' शब्द ऐतरेय ब्राह्मण (३२।८) में आया है और सम्भवतः वहाँ यह जन्म एवं मरण से उत्पन्न अशुद्धि का द्योतक है। वहाँ ऐसा आया है कि आहिताग्नि सूतक से प्रभावित किसी व्यक्ति के घर का भोजन कर लेता है, तो उसे तन्तुमान् अग्नि के लिए आठ कपालों पर बना हुआ पुरोडाश आहुति रूप में देने का प्रायश्चित्त करना पड़ता है। 'तन्तु' का अर्थ है 'सन्तति या पुत्र', अतः यह तर्क उपस्थित किया जा सकता है कि ऐतरेय ब्राह्मण में 'सूतक' शब्द जन्म से उत्पन्न अशुद्धि की ओर संकेत करता है। 'सूतक' शब्द स्मृतियों में तीन अर्थों में लिखित हुआ है; (१) जन्म के समय की अशुद्धि (मनु ५।५८), (२) जन्म एवं मरण पर अशुद्धि (गोभिल० ३।६० एव ६३) एवं (३) केवल मरण की ही अशुद्धि (दक्ष ६।१ एवं गोमिल० ३।४८)। ____ एक प्रश्न उपस्थित होता है-जन्म एवं मरण पर आशौच या अशुद्धि कुल के सदस्यों एवं सम्बन्धियों पर क्यों आती है ? इस प्रश्न पर बहुत कम लोगों ने विचार किया है। हारीत का कथन है-कुल को मरणाशीच होता है, क्योंकि मरण से वह अभिभूत (दुखी एवं निराश होता है और जब कोई नया जीवन प्रकट होता है तो कुलवृद्धि होती है और तब सन्तुष्टि या आनन्द प्राप्त होता है। ___ आशौच और शुद्धि पर बहुत विस्तृत साहित्य पाया जाता है। सूत्रों, स्मृतियों एवं पुराणों के अतिरिक्त बहुत-से ऐसे निबन्ध हैं जिन्होंने इस पर विस्तार के साथ लिखा है। कुछ निबन्ध प्रकाशित भी हैं। स्मृतियों में इस विषय में ३. आशौचं द्विविधं कर्मानधिकारलक्षणं स्पृश्यत्वलक्षणं च । स्मृतिमु. (पृ० ४७७)। ४. तदाहुर्य आहिताग्निर्यदि सूतकानं प्राश्नीयाका तत्र प्रायश्चित्तिरिति। सोऽग्नये तन्तुमतेऽष्टाकपालं पुरोगाशं निर्वपेत्तस्य याज्यानुवाक्ये तन्तुं सम्वन् रजसो भानुमन्विाक्षानहो नद्यतनोत सोम्या इति । आहुति बाहवनीये जुहुयादग्नये तन्तुमते स्वाहेति। ऐ० बा० (३२३८)। 'तन्तुं तन्वन्' एवं 'अक्षानहा' क्रम से ऋग्वेद की १०५३॥६ एवं १०.५३३७ ऋचाएं हैं। ५. सूतके कर्मणां स्यागः सन्ध्यादीनां विधीयते। होमः श्रौतस्तु कर्तव्यः शुष्कानेनापि वा फलैः॥ गोभिल स्मृति, जिसे छन्दोगपरिशिष्ट कहा जाता है (हारलता, पृ० ६, शु० कौ० एवं भावप्र० ० ८३)। सूतकं तु प्रबक्यामि जन्ममृत्युनिमित्तकम्। यावज्जीवं तृतीयं तु यथावदनुपूर्वशः॥ दक्ष (६३१); अस्थ्नामलाभे पार्णानि शकलान्युपतयावृता। भर्जयेदस्थिसंख्यानि ततःप्रभृति सूतकम् ॥ गोभिल. (३।४८) । अन्तिम का चौथा पार हारलता (पृ० २) द्वारा उद्धृत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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