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________________ अध्याय ८ शुद्धि शुद्धि के अन्तर्गत (जन्म-मरण के समय के) अशौच ; किसी अपवित्र वस्तु के स्पर्श से तथा कुछ घटनाओं के कारण उत्पन्न अपवित्रता, पात्रों (बरतनों), कूप, भोजन आदि की शुद्धि का विवेचन होता है। शुद्धि के अन्तर्गत नबीच का सबसे अधिक महत्त्व है, इसी से शुद्धिकौमुदी (पृ० १) ने शुद्धि की परिभाषा यों दी है-'वेदबोधित-कर्हिता शुवि' अर्थात् 'वेद से बोधित कृत्यों के सम्पादन की दशा या उन्हें करने की योग्यता की स्थिति शुद्धि है।' स्मृतियाँ 'शुद्धि शब्द को अशौच के उपरान्त की शुद्धि के अर्थ में लेती हैं। मनु (५।५७) ने यह कहते हुए इसका आरम्भ किया है कि हम प्रेतशुद्धि एवं द्रव्यशुद्धि की व्याख्या करेंगे। पुनः मनु (५।८३=दक्ष ६।७) में आया है कि ब्राह्मण (किसी सम्बन्धी के जन्म या मरण पर) १० दिनों के उपरान्त शुद्ध होता है, क्षत्रिय १२ दिनों के उपरान्त, आदि। पराशरस्मृति में तृतीय अध्याय का आरम्भ इस घोषणा से हुआ है-'मैं जन्म एवं मरण से सम्बन्धित शुद्धि की व्याख्या करूँगा।' याज्ञ० (३३१४१२५) में भी 'शुद्धि' शब्द प्रयुक्त हुआ है। अतः हम सर्वप्रथम जन्म-मरण से उत्पन्न अशौच का वर्णन करेंगे। पाणिनि (५११३१ एवं ७।३।३०) के मत से अशौच या आशौच शब्द 'न' (अ) निषेधार्थक अव्यय से संयुक्त 'शुचि से निर्मित हुआ है। कुछ स्मृतियों (यथा देवलस्मृति) में 'आशुच्य' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है (हारलता, पृ० २।९ एवं ३६)। 'आशौच' का एक अन्य पर्याय शब्द 'अघ' है। वैदिक साहित्य (ऋ० ११९७४१-८ एवं १०१११७४६) में 'अघ' का अर्थ है 'पाप'। किन्तु शांखायन श्री० (४।१५।११) एवं मनु (५।८४ 'न वर्धयेदघाहानि') में 'अप' का अर्थ 'आशौच' ही है। पद्मपुराण (२०६६।७३-७४) का कथन है कि शरीर अशुद्ध है क्योंकि इससे मल, मूत्र आदि निकलता रहता है। मिता. (याज्ञ० ३१) ने आशौच को पुरुषगत आशौच कहा है, जो काल, स्नान आदि से दूर होता है, जो मत को पिण्ड, जल आदि देने का प्रमुख कारण है और जो वैदिक अध्यापन तथा अन्य कृत्यों को छोड़ने का कारण बनता है। मिताक्षरा का कथन है कि आशौच धार्मिक कर्म करने के अधिकार या योग्यता के अभाव का द्योतक मात्र नहीं है, क्योंकि उन लोगों को, जो जन्म या मरण पर अशुद्ध हो गये हैं, जल-तर्पण आदि धार्मिक कृत्य करने ही पड़ते हैं। सम्भवतः मिताक्षरा की यह व्याख्या गरुडपुराण (प्रेतखण्ड, ५।९) की प्रतिध्वनि है और सम्भवतः 'संग्रह' नामक ग्रन्थ के एक वाक्य पर आधारित है। हरवत्त (गौतम० १४.१) ने 'आशौच' को धार्मिक कर्मों के सम्पादन के अधिकार की १. इगताच लघुपूति (पा० ५३१११३१७ मा अनुवर्तते)-शुचेर्भावः कर्म या शौचम् । न शौचम मशौचम् । इस शम्न की व्याख्या का यह एक रूप है। हम यों भी कह सकते हैं-न शुचि अशुचि, अशुचेर्भावः कर्मच माशोचं बा अशोचम् (बेलिए पा० ७॥३॥३०=ममः शुचीश्वरक्षेत्रज्ञकुशलनिपुणानाम्)। २. बनने मरने नित्पमाशुन्यमनुमावति। रेवल (हारलता, पृ० २); आशुज्यं दशरात्रं तु सर्वत्राप्यपरे चितुः। रेवल (मृद्धि, पृ०१)। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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