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बात्मा के सूक्म बेह
११५५ कर लेता है, जिसमें पांच तत्वों में अब केवल तीन तत्व बच रहते हैं, अर्थात् अग्नि, वायु एवं आकाश बच रहते हैं, जो शरीर से ऊपर उठ जाते हैं और पृथिवी एवं जल नीचे रह जाते हैं। ऐसा शरीर केवल मनुष्य ही धारण करते हैं अन्य जीव नहीं। दस दिन तक जो पिण्ड दिये जाते हैं (शवदाह के समय से लेकर ) उनसे आत्मा एक दूसरा शरीर धारण कर लेता है जिसे भोगवेह (वह शरीर जो दिये हुए पिण्ड का भोग करता है) कहा जाता है। वर्ष के अन्त में जब सपिण्डीकरण होता है, आत्मा एक तीसरा शरीर धारण कर लेता है जिसके द्वारा कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक को जाता है। देखिए वेदान्तसूत्र (१३४, आतिवाहिकस्तल्लिगात्), किन्तु यहाँ अर्थ कुछ दूसरा है। उपनिषदों ने आत्मा को अचियों, दिन आदि के मार्ग से जाते हुए कहा है। सूत्र का कथन है कि ये (अचियाँ, अहः आदि) अध् रूपी देवता हैं जो आत्मा को क्रमशः मार्ग द्वारा ऊपर ब्रह्मा की ओर ले जाते हैं। प्रायश्चित्तविवेक की टीका में गोविन्दानन्द ने (पृ. १३-१४) केवल दो शरीरों का (तीन नहीं, जैसा कि प्रथम दृष्टि से प्रकट होता है), अर्थात् आतिवाहिक या प्रेतदेह और भोगवेह का उल्लेख किया है। ऐसा विश्वास था कि जिस मृत व्यक्ति के लिए पिण्ड नहीं दिये जाते या जिसके लिए १६ श्राद्ध (जिनका वर्णन आगे होगा)नहीं किये जाते, वह सदा के लिए पिशाच की स्थिति में रहता है। जिससे वह आगे अगणित श्राद्धों के करने से भी छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकता। ब्रह्मपुराण ने इस शरीर की स्थिति को यातनीय (वह जो कष्टों एवं यातनाओं को पाता है) कहा है, किन्तु अग्निपुराण ने इसे यातनीय या आतिवाहिक की संज्ञा दी है
और कहा है कि यह शरीर आकाश, वायु एवं तेज से बनता है। पद्मपुराण (२।६७।९८) का कथन है कि जो व्यक्ति कुछ पाप करते हैं, वे मृत्यु के उपरान्त भौतिक शरीर के समान ही दुःख भोगने के लिए एक शरीर पाते हैं। अन्तनिहित धारणा यह रही है कि जब तक मृतात्मा पुनः शरीरी रूप में आविर्भूत नहीं होता, तब तक स्थूल शरीर को दाह, भूमि में
बाहिकसंशोऽसौ बेहो भवति भार्गव । केवलं तन्मनुष्याणां नान्येषां प्राणिनां क्वचित् ।। प्रेतपिण्डस्ततो दत्तैर्देहमाप्नोति भार्गव । भोगदेहमिति प्रोक्तं क्रमादेव न संशयः॥प्रेतपिण्डा न दीयन्ते यस्य तस्य विमोक्षणम् । श्माशानिकेभ्यो देवेभ्य आकल्प नैव विद्यते॥ तत्रास्य यातना घोराः शीतवातातपोद्भवाः। ततः सपिण्डीकरणे बान्धवैः स कृते नरः। पूर्ण संवत्सरे देहमतोन्यं प्रतिपद्यते ॥ ततः स नरके याति स्वर्गे वा स्वेन कर्मणा ॥ विष्णुधर्मोत्तरपुराण (प्राय० वि०, पृ० १३-१४ एवं शुद्धितस्व, पृ० ३२४)। गोविन्दानन्द ने 'त्रीणि भूतानि' को 'पृथिव्यप्तेजांसि' के अर्थ में लिया है और इस प्रकार रघुनन्दन से मतमेव उपस्थित किया है। गरुड़ पुराण (प्रेतखण्ड, १०७९) ने भी यही बात कही है-'उत्कामन्त....मानचक्षुषः ॥आतिवाहिकमित्येवं वायवीयं वदन्ति हि।...पुत्रादिभिः कृताश्चेत्स्युः पिण्डा दश दशाहिकाः। पिमजेन तु बेहेन वायुजश्चकता व्रजेत् । पिण्डतो यदि नैव स्याद्वायुजोर्हति यातनाम् ॥' प्रथम पद्य गीता का है (१५।१०)ब्रह्म ने कहा है-विहाय सुमहत्कृत्स्नं शरीरं पाञ्चभौतिकम्। अन्यच्छरीरमादत्ते यातनीयं स्वकर्मजम् ॥... स्वशरीरं समुत्सृज्य वायुभूतस्तु गच्छति । (२१४१२९-३० एवं ५१); निमित्तं किंचिदासाद्य देही प्राविमुच्यते। भन्यच्छरीरमावसे यातनीयं स्वकर्मभिः॥ अग्निपुराण (२३०।२-३); गृह्णाति तत्क्षणाद्योगे शरीरं चातिवाहिकम् । भाकाशवायुतेजांसि विग्रहादूर्ध्वगामिनः॥ जलं मही च पञ्चत्वमापन्नः पुरुषः स्मृतः। आतिवाहिकदेहं तु यमदूता नयन्ति तम् ॥ अग्नि० (३७१।९-१०)। मार्कण्डेय० (१०।६३-६४) का कथन है--'वाय्वग्रसारी तद्रूपं देहमन्य प्रपचते। तरकर्मजं यातनार्य न मातापितृसम्भवम् ।'
५८. यस्यतानि न दीयन्ते प्रेतभावानि षोडश। पिशाचत्वं ध्रुवं तस्य दत्तः श्राद्धशतैरपि ॥ यम (श्राद्धक्रिया कौमुदी, पृ० ३६२ एवं प्रा० वि० पृ० १४ पर तत्वार्थकौमुदी)। यही पद्य लिखितस्मृति (५।१६) एवं गरुडपुराण (प्रेतसम्म, ३४॥१३१) में भी पाया जाता है।
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