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धर्मशास्त्र का इतिहास
मृत्यु पर) पत्नी को अधिकार है और पत्नी के अभाव में सगा भाई (सहोदर) श्राद्धकर्म करता है (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ.
3; निर्णयसिन्धु ३, पृ० २८०)। विष्णुपुराण (३।१३।३१-३३) ने व्यवस्था दी है-(मत के) पुत्र, पौत्र, (मृत के) माई की संतति एवं सपिण्ड की संतति पिण्ड देने के अधिकारी होते हैं। मार्कण्डेयपुराण (३०।१९. २१ या १९।२३. संस्करण २) का कथन है कि पुत्रों के अभाव में सपिण्ड, उनके अभाव में समानोदक. इसके उपरान्त माता के सपिण्ड एवं (उनके अभाव में) उसके समानोदक पिण्डदान करते हैं, (यदि व्यक्ति अपुत्र ही मर जाय तो) पुत्री का पुत्र पिण्ड दे सकता है, नाना के लिए पुत्रिका-पुत्र दे सकता है। इन लोगों के अभाव में पत्नियां बिना मन्त्रों के श्राद्ध-कर्म कर सकती हैं, पत्नी के अभाव में राजा को चाहिए कि वह कुल के किसी व्यक्ति द्वारा या उसी जाति के किसी व्यक्ति द्वारा श्राद्धकर्म करा दे, क्योंकि राजा सभी वर्गों का सम्बन्धी है।५२ मृत्यु के उपरान्त दस दिनों तक कर्म करते रहने एवं मत-व्यक्ति की सम्पत्ति लेने में गहरा सम्बन्ध है। इस विषय में देखिए मिताक्षरा एवं दायभाग के मत (देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय २९)। उन लोगों ने भी, जिन्होंने रिक्थ (दाय या सम्पत्ति के उत्तराधिकार) को रक्तसम्बन्ध पर आधारित माना है न कि पिण्ड देने की समर्थता पर, कहा है कि उन सभी लोगों के लिए, जो दूसरे की सम्पत्ति पाते हैं (यहाँ तक कि राजा के लिए भी जो संतति के अभाव में अन्तिम उत्तराधिकारी होता है), मत की अन्त्येष्टि-क्रिया एवं श्राद्ध-कर्म करना अति आवश्यक है। विष्णुधर्मसूत्र (१५-४०) ने घोषित किया है जो भी कोई मृत की सम्पत्ति रिक्थ में पाता है, उसे (मृत के लिए) पिण्ड देना होता है। यही बात याज्ञ० (२।१२७) ने क्षेत्रज पुत्र के लिए कही है (उभयोरप्यसौ रिक्थी पिण्डदाता च धर्मतः)।
स्मृत्यर्थसार (पृ० ९४) ने अधिकारियों का क्रम यों दिया है-'पिण्ड देने के लिए योग्य पुत्र प्रथम अपिकारी है, उसके अभाव में पति, पत्नी एवं सहपलियाँ होती हैं। इनके अभाव में भतीजा, भाई, पतोहू, पुत्री, पुत्री का पुत्र, अन्य सगोत्र, सपिण्ड, सहपाठी, मित्र, शिष्य, शिक्षक, कोई सम्बन्धी एवं कोई भी, जो मृत की सम्पत्ति ग्रहण करता है, पिण्ड दे सकता है। पिता अपने पुत्र के श्राद्ध-कर्म के योग्य नहीं होता है और न बड़ा भाई छोटे भाई के श्राद्धकर्म के योग्य माना जाता है, ये लोग स्नेहवश वैसा कर सकते हैं किन्तु सपिण्डीकरण नहीं कर सकते। माता-पिता कुमारी कन्याओं को पिण्ड दे सकते हैं, यहाँ तक कि वे किसी योग्य व्यक्ति (कर्ता) के अभाव में विवाहित कन्याओं को भी पिण्ड दे सकते हैं।
५२. पितुः पुत्रेण कर्तव्या पिण्डदानोदकक्रिया। पुत्राभावे तु पत्नी स्यात्पत्ल्यभावे तु सोदरः॥ शंख (स्मृतिच० २, पृ० ३६५; निर्णयसिन्धु ३, पृ० ३८०)। पुत्रः पौत्रः प्रपौत्रो वा तद्वद्वा भ्रातृसंततिः। सपिण्डसन्ततिर्वापि क्रिया नृप जायते ॥ तेषामभावे सर्वेषां समानोदकसन्ततिः । मातृपक्षस्य पिण्डेन संबवा ये जलेन च ॥ कुलायेऽपि चोत्सन्न स्त्रीभिः कार्या क्रिया नप। संघातान्तर्गतैर्वापि कार्या प्रेतस्य च क्रिया। उत्सन्नबन्धुरिक्यानां कारयेववनीपतिः।। विष्णुपुराण (३॥१३॥३१-३३; अपरार्क, पृ० ४३३; स्मृतिच० २, पृ० ३३६; परा० मा० ११२, १० ४६१; शुद्धितत्त्व पृ० ३८३)। विष्णुपुराण (५।३४) ने राजा को भी अधिकारी माना है। पुत्राभावे सपिण्डास्तु तदभावे सहोदकाः। मातुः सपिण्डा ये च स्युर्य वा मातुः सहोदकाः॥कुर्युरेनं विधि सम्यगपुत्रस्य सुतासुतः। कुर्युर्मातामहायवं पुत्रिकातनयास्तथा ॥ सर्वाभावे स्त्रियः कुर्युः स्वभर्तृणाममन्त्रकम् । तदभावे च नृपतिः कारयेत् स्वकुटुम्बिना ॥ तज्जातीयैर्नरैः सम्यग्दाहाद्याः सकलाः क्रियाः। सर्वेषामेव वर्णानां बान्धवो नृपतिर्यतः॥ मार्कण्डेयपुराण (३०।१९-२४; स्मृतिच० २, पृ० ३३६; परा० मा० २२, पृ० ४६३)। और देखिए ब्रह्मपुराण (२२०१७६-८०)।
५३. मृतस्य रिक्थग्राहिणा येन केनापि राजपर्यन्तेनौदेहिकं बशाहान्तं कार्यम् । तथा व विष्णःयश्चार्थहरः स पिण्डदायी स्मृत इति। व्यवहारमयूख (पृ० १४५)।
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