SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधि-निर्माण; अन्त्येष्टि करने के अधिकारी ११४९ उनमें लकड़ी के स्तम्भ हैं, जिससे पता चलता है कि उनमें श्रीत सूत्रों में वर्णित वैदिक प्रथा का पालन हुआ था । अन्तर केवल इतना ही है कि लौरिया की समाधियों की ऊँचाई तथा वैदिक एवं सूत्रोक्त ऊँचाई में भेद है। सत्या० श्र० ने २८वें प्रश्न में पितृमेघ एवं २९वें प्रश्न में ब्रह्ममेव का वर्णन किया है। दोनों का अन्तर सत्या० श्री० (२९।३।४-१८) में बताया गया है। 'चतुर्होतार:' नामक मन्त्र ब्रह्म कहलाता है ( तै० ब्रा० ३।१२।५ ) और ब्रह्ममेघ की विधि केवल आचार्य या श्रोत्रिय के लिए प्रयुक्त होती है। महादेव की वैजयन्ती में आया है कि सत्या० श्री० के २८ एवं २९ प्रश्न भरद्वाज से लिये गये हैं। सत्या० श्री० में वर्णित धवन की विधि का प्रयोग आधुनिक भारत नहीं होता । धवन का उल्लेख बौधा० पि० सू० (१।१७ ) एवं कात्या० श्र० सू० (२१।३।६) में भी हुआ है। उपर्युक्त विवेचनों से प्रकट हुआ होगा कि प्राचीन भारत में अन्त्येष्टि-कर्म चार स्तरों में होता था, यथा-शबबाह (शव को जलाना), अस्थिसंबय एवं अस्थि पात्र को पृथिवो के भीतर गाड़ना, शान्तिकर्म एवं अस्थियों के ऊपर शमशान या समाधि निर्मित करना | अन्तिम स्तर सभी लोगों के लिए आवश्यक रूप से नहीं प्रयुक्त होता था । रुद्रदामन् के समय में सीहिल के पुत्र मदन ने अपनी बहिन, भाई एवं पत्नी की स्मृति में लाठी ( लष्टि या यष्टि) खड़ी की थी (एपि० इण्डिका, जिल्द १६, पृ० २३-२५, अन्धौ शिलालेख, सम्भवतः शक सं० ५३ ) । अपरार्क द्वारा उद्धृत ब्रह्मपुराण की एक लम्बी उक्ति में ऐसा आया है ( पृ० ८८५-८८६) कि जलाये गये शव की अस्थियाँ एक पात्र में एकत्र करनी चाहिए और उसे किसी वृक्ष की जड़ में रखना चाहिए या गंगा में बहा देना चाहिए, शवदाह की भूमि को गोबर एवं जल से लीपकर पवित्र कर देना चाहिए और वहां पुष्करक नामक वृक्ष लगा देना चाहिए या एडूक (समाधि) का निर्माण कर देना चाहिए। " सत्या० श्र० (२८।२।२८) एवं बौ० पि० सू० (२।१।२) ने, जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, लिखा है कि मृत्यु के उपरान्त से लेकर अस्थि- पात्र को भूमि में गाड़ने तक के कर्म केवल उन मृत लोगों के लिए, जिन्होंने वैदिक अग्नियाँ नहीं जलायी हैं और विवाहित स्त्रियों के लिए हैं, किन्तु अग्निचयन कर्म करनेवालों की अस्थियों पर मिट्टी या ईंटों का श्मशान (या समाधि) बना दिया जाता है। यह विचारणीय है कि बेबीलोनिया एवं केल्टिक ब्रिटेन में स्वामी के साथ दास एवं नौकर गाड़ दिये जाते थे, किन्तु प्राचीन भारत में शवदाह एवं शव ( या अस्थि) गाड़ने की प्रथा में ऐसा नहीं पाया जाता । शतपथब्राह्मण जैसे प्राचीन ग्रन्थ में ऐसा कोई उल्लेख या विधि नहीं है । यह सम्भव है कि प्राक्वैदिक काल में पति की चिता पर पत्नी भी भस्म हो जाती रही हो। इसमें सन्देह नहीं कि विष्णुधर्मसूत्र ने स्त्रियों को पातिव्रत धर्म निबाहने के लिए ऐसा कहा है कि वे यदि चाहें तो सती हो सकती हैं। अन्त्यकर्माधिकारी वे ही होते हैं जो श्राद्धकर्म करने के लिए अधिकारी माने जाते हैं। किसको प्राथमिकता दी जाय, इस विषय में धर्मशास्त्रकारों में मतैक्य नहीं है। उदाहरणार्थ, गौतमधर्मसूत्र ( १५।१३-१४) का कथन है कि 'पुत्रों के अभाव में सपिण्ड लोग ( भाई-भतीजे), माता के सपिण्ड लोग ( मामा या ममेरा भाई) एवं शिष्य लोग मृत का श्राद्ध कर्म कर सकते हैं; इनके अभाव में कुल पुरोहित एवं आचार्य (वेद- शिक्षक ) ऐसा कर सकते हैं ।' शंख का कथन है कि 'पिता के लिए पिण्डदान एवं जल-तर्पण पुत्र द्वारा होना चाहिए; पुत्राभाव में ( उसकी अनुपस्थिति या ५१. गृहीत्वास्थीनि तद्भस्म नीत्वा तोये विनिक्षिपेत् । ततः संमार्जनं भूमेः कर्तव्यं गोमयाम्बुभिः ॥... भूमेराच्छादनार्थं 'तु वृक्षः पुष्करकोऽथवा । एडको वा प्रकर्तव्यस्तत्र सर्वैः स्वबन्धुभिः ॥ ब्रह्मपुराण ( अपरार्क, पृ० ८८६ ) । यही वचन त्रिशच्छ्लोकी (श्लोक २८, पृ० २५३) की रघुनाथकृत टीका में भी आया है जिसने पुष्कर को पुष्करिणी के अर्थ में लिया है और एडूकः को पट्टकः पढ़ा है और उसे 'पत्थर' (चबूतरा) के अर्थ में लिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy