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धर्मशास्त्र का इतिहास सत्याषाढ श्री० (२९।२३-१२) ने एक विधि दी है जिसमें धवन नहीं होता, एक और विधि दी है (२९।१।१३-३२) जिसमें धवन होता है, आगे चलकर ऐसी विधि दी है जिसमें दोनों प्रकार से धवन किया जाता है।
लोष्टचितियों से समाधि बनाना, जिसमें धवन होता है, अब प्राचीन मान लिया गया है। इसका वर्णन संक्षेप में यों है--मृत के घर के सदस्यगण एक शाला या पर्यक के लिए एक आधार बनाते हैं। वे उसके पूर्व अर्घ भाग या बीच या पश्चिम अर्घ माग में तीन मुंह वाली पलाश की खूटी गाड़ते हैं। इसके सामने एक शूद्र नारी से उत्पन्न व्यक्ति या ब्रह्मबन्धु (केवल नाम का ब्राह्मण) कथनोपकथन के लिए बैठता है। वह मृत की मुख्य पत्नी से पूछता है'क्या तुम मेरे पास रहोगी?' वह स्त्री प्रत्युत्तर देती है-(जो तुम चाहते हो) मैं नहीं करूंगी।' यह बातचीत दूसरे दिन भी होती है। तब वह तीसरे दिन प्रत्युत्तर देती है-'मैं केवल एक रात्रि के लिए रहँगी।' यदि यह विचित्र पद्धति (धवन के विषय में, जिसका शाब्दिक अर्थ संभोग है) तीन दिन से अधिक चलनेवाली होती है तो स्त्री को उचित उत्तर देना होता है (अर्थात् तीन रात्रियों या पाँच रात्रियों के लिए, आदि)। जब उत्तर के शब्द उच्चारित होते हैं तो कर्ता अस्थियों को खंटी की जड में रखता है और खंटी के निकले हुए तीन मखों पर एक ऐसा घडा रख देता है जिसके तल में एक सौ छिद्र होते हैं। घड़े का मुख चर्म एवं कुश से ढंका रहता है। घड़े पर वह वाजिन युक्त दही छोड़ता है और 'वैश्वानरे हविरिदम्' (तै० आ० ६.१) का पाठ करता है। जब घड़े से तरल पदार्थ अस्थियों पर चूने लगता है तो वह तै० आ० (६६) के मंत्र कहने लगता है। इसके उपरान्त सत्याषाढ श्रो० (२९।१)२६-२९ व्यवस्था दी है कि चार ब्रह्मचारी या अन्य ब्राह्मण, जो पवित्र होते हैं, अपने सिर की दाहिनी ओर की चोटी बाँधते हैं और बायीं ओर की चोटी के बालों को बिखेर देते हैं, वे अपनी दाहिनी जाँघों को पीटते हैं और उस चर्म को भी छुते हैं जो अस्थि-पात्र को चारों ओर घेरे रहता है, अपने वस्त्रों से उसकी हवा करते हैं और घड़े की बायीं ओ की परिक्रमा करते हैं, ऐसा ही घर के अन्य लोग और स्त्रियाँ करती हैं। वीणा बजायी जाती है, शंख फंके जाते हैं और नालिक, तूण, पणव आदि वाद्य बजाये जाते हैं, नत्य, गीत आदि किया जाता है। यह धवन ५, ६, ९ दिनों तक, अर्न मास, मास भर या वर्ष भर चलता है. और अपनी सामर्थ्य के अनुसार भोजन, धन (सोना आदि) का दान किया जाता है, कुछ लोगों के मत से यह दान-कर्म अन्तिम दिन में किया जाता है। यदि कल्पना की जाय तो यह कृत्य केवल मृत को यह विश्वास दिलाने के लिए है कि उसकी पत्नी इतने दिनों के उपरान्त भी सदाचारिणी रही है। बौधा. पि० सू० (१।१७।८) का भी कथन है कि इस कृत्य में नर्तकियाँ नृत्य करती हैं। अस्थियों के ऊपर बनी हुई समाधि की लम्बाई, चौड़ाई एवं ऊँचाई के विषय में सूत्रों ने कई मत दिये हैं। सत्या० श्रौ० (२९।१।५-६) के अनुसार श्मशानायतन (श्मशान या समाधि का आयतन-लम्बाई, चौड़ाई आदि) चारों ओर से पाँच प्रक्रम (या पूर्व से छः तथा अन्य दिशाओं से पाँच प्रक्रम) होता है। एक ही सूत्र में समाधि की ऊँचाई कई प्रकार से दी हुई है। सत्या० श्री० सू० का कथन है कि ऊँचाई दो अंगुल या तीन, चार, एक प्रादेश (अंगूठे एवं तर्जनी की दूरी, जब कि फैला दिये जायें) या एक वितस्ति (बारह अंगुल) या वह घुटनों या जंघाओं या नितम्बों तक पहुँच सकती है। इस विषय में और देखिए बौ० पि० मू० (१।१८), कौशिकसूत्र (८४।४-१०) आदि। वर्णनों से पता चलता है कि समाधि सामान्यतः चतुर्भुजाकार होती थी, किन्तु कुछ शाखाओं के मत से मण्डलाकार भी होती थी। लौरिया की समाधियाँ मण्डलाकार ही हैं।
एक विशिष्ट अवलोकनीय बात यह है कि समाधि का निर्माण कई स्तरों (तहों) में होता था और मिट्टी के धोंधे या लोंदे (तभी समाधि को लोष्ट-चिति कहा जाता है) या ईंटों का व्यवहार होता था। पूर्व, उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण में क्रम से ईंटें लगती थीं और सत्या० श्रौ० (२९।११५३), बोधा० पि० सू० (१।१९।४-७) के मंत्र पढ़े जाते थे (ऋ० १०।१८।१३, १०, १२ अथर्व० १८१३१५२, ४९, ५०, ५१ एवं तै० आ० ६७१)। ऋ० (१०।१८।१२) में स्तम्भों एवं ऋ० (१०।१८।१३) में स्थूणा (थून्ही) का उल्लेख है। लौरिया-नन्दनगढ़ में जो समाधियां मिली हैं
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