________________
११४०
धर्मशास्त्र का इतिहास
पर वासुदेव द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति कहे गये वचन । परा० मा० ( १२, पृ० २९२ - २९३), शुद्धिप्रकाश (१० २०५२०६) एवं अन्य ग्रंथों ने विष्णु०, याज्ञ० एवं गोभिल० के वचन उद्धृत किये हैं ।
गरुड़पुराण (२।४।९१-१००) ने पति की मृत्यु पर पत्नी के ( पति - चिता पर ) बलिदान अर्थात् एवं पतिव्रता की चमत्कारिक शक्ति के विषय में बहुत कुछ लिखा है और कहा है कि ब्राह्मण स्त्री को अपने पति से पृथक नहीं चलना चाहिए ( अर्थात् साथ ही जल जाना चाहिए), किन्तु क्षत्रिय एवं अन्य नारियाँ ऐसा नहीं भी कर सकतीं । उसमें यह भी लिखा है कि सती-प्रथा सभी नारियों, यहाँ तक कि चाण्डाल नारियों के लिए भी, समान ही है, केवल गर्मती नारियों को या उन्हें जिनके बच्चे अभी छोटे हों, ऐसा नहीं करना चाहिए। उसमें यह भी लिखा है कि जब तक पत्नी सती नहीं हो जाती तब तक वह पुनर्जन्म से छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकती ।
गुरुजनों का दार्शनिक उपदेश सुनने के उपरान्त सम्बन्धीगण अपने घर लौटते हैं, बच्चों को आगे करके घर के द्वार पर खड़े होकर और मन को नियन्त्रित कर नीम की पत्तियाँ दाँतों से चबाते हैं, आचमन करते हैं, अग्नि, जल, गोबर एवं श्वेत सरसों छूते हैं; इसके उपरान्त किसी पत्थर पर धीरे से किन्तु दृढता से पाँव रखकर घर में प्रवेश करते हैं। शंख के अनुसार संबंधियों द्वारा को दूर्वाप्रवाल ( दूब की शाखा ), अग्नि, बैल को छूना चाहिए, मृत को घर के द्वार पर पिण्ड देना चाहिए और तब घर में प्रवेश करना चाहिए।" बैजवाप ( शुद्धितत्त्व, पृ० ३१९, निर्णयसिन्धु ३, पृ० ५८०) ने शमी, अश्मा (पत्थर), अग्नि को स्पर्श करते समय मन्त्रों के उच्चारण की व्यवस्था दी है और कहा है कि अपने एवं पशुओं (गाय एवं बकरी) के बीच में अग्नि रखकर उन्हें छूना चाहिए, एक ही प्रकार का भोजन खरीदना या दूसरे के घर से लेना चाहिए, उसमें नमक नहीं होना चाहिए, उसे केवल एक दिन और वह भी केवल एक बार खाना चाहिए तथा सारे कर्म तीन दिनों तक स्थगित रखने चाहिए। याज्ञ० (३।१४ ) ने व्यवस्था दी है कि उसके बत लाये हुए कर्म (३।१२), यथा--नीम की पत्तियों को कुतरने से लेकर गृह प्रवेश तक के कार्य उन लोगों द्वारा भी सम्पादित होने चाहिए जो सम्बन्धी नहीं हैं किन्तु शव को ढोने, उसे सँवारने, जलाने आदि में सम्मिलित थे ।
शांखायनश्रौत० (४।१५।१०), आश्वलायनगृह्य० ( ४/४/१७-२७), बौधायनपितृमेघसूत्र ( १।१२ - १०), कौशिकसूत्र (८२।३३-३५ एवं ४२-४७), पारस्करगृह्य ० ( ३३१०), आपस्तम्बधर्म ० ( १ | ३|१०|४- १० ), गौतमधर्म ० ( १४।१५-३६), मनु ( ५/७३), वसिष्ठ० (४११४-१५), याज्ञ० ( ३।१६-१७), विष्णु० ( १९।१४१७), संवर्त (३९-४३), शंख (१५-२५), गरुड़पुराण ( प्रेतखण्ड, ५।१-५) एवं अन्य ग्रंथों ने उन लोगों (पुरुषों एवं स्त्रियों) के लिए कतिपय नियम दिये हैं जिनके सपिण्ड मर जाते हैं और लिखा है कि श्मशान से लौटने के उपरान्त तीन दिनों तक क्या करना चाहिए। शांखा ० श्रौ० ने व्यवस्था दी है कि उन्हें खाली ( विस्तरहीन ) भूमि पर सोना चाहिए, केवल याज्ञिक भोजन करना चाहिए, वैदिक अग्नियों से सम्बन्धित कर्मों को करते रहना चाहिए, किन्तु अन्य धार्मिक कृत्य नहीं करने चाहिए, और ऐसा एक रात के लिए या नौ रातों के लिए या अस्थि-संचय करने तक करना चाहिए। आश्व० गृह्य० (४|४|१७-२४) ने निम्न बातें दी हैं—उस रात उन्हें भोजन नहीं बनाना चाहिए, खरीद कर या अन्य के घर से प्राप्त भोजन करना चाहिए, तीन रातों तक निर्मित या खान से प्राप्त नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए, यदि मुख्य गुरुओं (पिता, माता या वह जिसने उपनयन संस्कार कराया हो या जिसने वेद पढ़ाया हो) में किसी की मृत्यु हो गयी हो तो विकल्प से १२ रातों तक दान देना तथा वेदाध्ययन स्थगित कर देना चाहिए। पार० गृ० (३।१०) का
४६. दूर्याप्रवालमग्निं वृषभं चालस्य गृहद्वारे प्रेताय पिण्डं दत्त्वा पश्चात्प्रविशेयुः । शंख (मिता०, याश० ३।१३, परा० मा० १२, पृ० २९३ ) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org