________________
अशौच में कर्तव्य-अकर्तव्य कर्म; अस्थिसंचयन
११४१
कथन है कि ब्रह्मचर्य-यत पालन करना चाहिए, दिन में केवल एक बार खाना चाहिए। उस दिन वेदपाठ स्थगित रखना चाहिए तथा वेदाग्नियों के कृत्यों को छोड़कर अन्य धार्मिक कृत्य भी स्थगित कर देने चाहिए। वसिष्ठ० (४।१४-१५) का कथन है कि संबंधियों को चटाई पर तीन दिन बैठकर उपवास करना चाहिए। यदि उपवास न किया जा सके तो बाजार से मँगाकर या बिना माँगे प्राप्त भोजनसामग्री का आहार करना चाहिए। याज्ञ०(३।१७) एवं पार० (३११०) ने व्यवस्था दी है कि उस रात उन्हें एक मिट्टी के पात्र में दूध एवं जल डालकर उसे खुले स्थान में शिक्य (सिकहर) पर रखकर यह कहना चाहिए-हे मृतात्मा, यहाँ (जल में) स्नान करो और इस दूध को पीओ।' याज्ञ० (३।१७), पैठीनसि, मनु (५।८४), पार० गृह्य० (३।१०) आदि का कथन है कि मृतात्मा के संबंधियों को श्रौत अग्नियों से संबंधित आह्निककृत्य (अग्निहोत्र, दर्श-पूर्णमास आदि) तथा स्मार्त अग्नियों वाले कृत्य (यथा, प्रातः एवं सायं के होम आदि) करते रहना चाहिए, क्योंकि वेद के ऐसे ही आदेश हैं (यथा, व्यक्ति को आमरण अग्निहोत्र करते जाना चाहिए)। टीकाकारों ने कई एक सीमाएँ एवं नियन्त्रण घोषित किये हैं। मिताक्षरा (याज्ञ०३।१७) का कथन है कि मनु (५।८४) ने केवल श्रौत एवं स्मार्त अग्नियों के कृत्यों का अपवाद, किया है, अतः पंच महायज्ञ-जैसे धार्मिक कर्म नहीं करने चाहिए। वैश्वदेव, जिसका सम्पादन अग्नि में होता है, छोड़ दिया जाता है, क्योंकि संवर्त ने स्पष्ट रूप से कहा है कि (सपिण्ड की मृत्यु पर) ब्राह्मण को १० दिनों तक वैश्वदेव-रहित रहना चाहिए। श्रौत एवं स्मार्त कृत्य दूसरों द्वारा करा देने चाहिए, जैसा कि पार० (३।१० 'अन्य एतानि कुर्युः') ने स्पष्ट रूप से आज्ञापित किया है। केवल नित्य एवं नैमित्तक कृत्यों को, जो श्रौत एवं स्मार्त अग्नियों में किये जाते हैं, करने की आज्ञा दी गयी है, अतः काम्य कर्म नहीं किये जा सकते।
आजकल भी अग्निहोत्री लोग स्वय श्रौत नित्य होम अशौच के दिनों में करते हैं, यद्यपि कुछ लोग ऐसा अन्य लोगों से कराते हैं (याज्ञ० ३।१७ एवं मनु ५।८४)। यद्यपि गोमिलस्मृति (३६०) ने सन्ध्या का निषेध किया है, किन्तु पैठीनसि का हवाला देकर मिताक्षरा ने कहा है कि सूर्य को जल दिया जा सकता है। कुछ अन्य लोगों का कथन है कि सन्ध्या के मन्त्रों को मन में कहा जा सकता है, केवल प्राणायाम के मन्त्र नहीं कहे जाते (स्मृतिमुक्ताफल पृ० ४७८)। आजकल भारत के बहुत-से भागों में ऐसा ही किया जाता है। विष्णु० (२२।६) ने व्यवस्था दी है कि जन्म एवं मरण के अशौच में होम (वैश्वदेव), दान देना एवं ग्रहण करना तथा वेदाध्ययन रुक जाता है। वैखानसस्मार्त० (६।४) के मत से सन्ध्या-पूजा, देवों एवं पितरों के कृत्य, दान देना एवं लेना तथा वेदाध्ययन अशौच की अवधि में छोड़ देना चाहिए। गौतम (१४१४४) का कथन है कि वेदाध्ययन के लिए जन्म-मरण के समय ब्राह्मण पर अशौच का प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरी ओर संवर्त (४३) का कथन है कि जन्म-मरण के अशौच में पंच महायज्ञ एवं वेदाध्ययन नहीं करना चाहिए। नित्याचारपद्धति (पृ० ५४४) का कथन है कि अशौच में भी विष्णु के सहस्र नामों का पाठ किया जा सकता है।
अस्थिसञ्चयन या सञ्चयन वह कृत्य है जिसमें शव-दाह के उपरान्त जली हुई अस्थियां एकत्र की जाती हैं। यह कृत्य बहुत-से सूत्रों एवं स्मृतियों में वर्णित है, यथा-शांखा० श्री० (४।१५।१२-१८), सत्याषाढश्री० (२८१३), आश्व० गृह्य० (४।५।१-१८), गौ० पि० सू० (१५), विष्णु० (१९।१०-१२), बौघा० पि० सू० (५।७), यम (८७८८), संवर्त (३८), गोभिल० (३।५४-५९), हारलता (पृ० १८३)। यह कृत्य किस दिन किया जाय, इस विषय में मतैक्य नहीं है। उदाहरणार्थ, सत्या० श्री० (२८।३।१) के मत से अस्थि-संचयन शवदाह के एक दिन उपरान्त या तीसरे, पांचवें या सातवें दिन होना चाहिए; संवर्त (३८) एवं गरुडपुराण (प्रेतखण्ड ५।१५) के मत से पहले, तीसरे सातवें या नवें दिन और विशेषतः द्विजों के लिए चौथे दिन अस्थिसंचयन होना चाहिए। वामनपुराण (१४१९७-९८) ने पहले, चौथे या सातवें दिन की अनुमति दी है। यम (८७) ने सम्बन्धियों को शवदाह के उपरान्त प्रथम दिन से लेकर चौथे
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org