________________
११३८
धर्मशास्त्र का इतिहास पृथिवी माता की है। ये सब बातें पुरातत्त्व-वेत्ताओं से संबंध रखती हैं, अतः हम इन पर यहां विचार नहीं करेंगे।
हारलता (पृ० १२६) ने आदिपुराण का एक वचन उद्धत करते हुए लिखा है कि मग लोग गाड़े जाते थे और दरद लोग एवं लुप्त्रक लोग अपने संबंधियों के शवों को पेड़ पर लटकाकर चल देते थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि आरंभिक बौद्धों में अन्त्येष्टि-क्रिया की कोई अलग विधि प्रचलित नहीं थी, चाहे मरनेवाला भिक्षु हो या उपासक । महापरिनिब्बान सुत्त में बौद्धधर्म के महान् प्रस्थापक की अन्त्येष्टि क्रियाओं का वर्णन पाया जाता है (४।१४) । इस ग्रंथ से इस विषय में जो कुछ एकत्र किया जा सकता है वह यह है-'बुद्ध के अत्यन्त प्रिय शिष्य आनन्द ने कोई पद्य कहा, कुछ ऐसे शिष्य जो विषयभोग से रहित नहीं थे, रो पड़े और पृथिवी पर धड़ाम से गिर पड़े, और अन्य लोग (अर्हत्) किसी प्रकार दुःख को सँभाल सके। दूसरे दिन आनन्द कुशीनारा के मल्लों के पास गये, मल्लों ने धूप, मालाएँ, वाद्ययंत्र तथा पाँच सौ प्रकार के वस्त्र आदि एकत्र किये; मल्लों ने शाल वृक्षों की कुंज में पड़े बद्ध के शव की प्रार्थना सात दिनों तक की और नाच, स्तुतियों, गायन, मालाओं एवं गंधों से पूजा-अर्चनाएँ की और वे वस्त्रों से शव को ढंकते रहे। सातवें दिन वे भगवान् के शव को दक्षिण की ओर ले चले, किन्तु एक चम.त्कार (६।२९-३२ में वर्णित) के कारण वे उत्तरी द्वार से नगर के बीच से होकर शव को लेकर चले और पूर्व दिशा में उसे रख दिया (सामान्य नियम यह था कि शव को गांव के मध्य से लेकर नहीं जाया जाता और उसे दक्षिण की ओर ले जाया जाता था, किन्तु बुद्ध इतने असाधारण एवं पवित्र थे कि उपर्युक्त प्रथाविरुद्ध ढंग उनके लिए मान्य हो गया)। बद्ध का शव नये वस्त्रों से ढंका गया और ऊपर से रूई और ऊन के चोगे बाँधे गये और फिर उनके ऊपर एक नया वस्त्र बांधा गया, इस प्रकार वस्त्रों एवं सूत्रों के पाँच सौस्तरों से शरीर ढंक दिया गया। इसके उपरान्त एक ऐसे लोहे के तैलपात्र में रखा गया जो स्वयं एक तैलयुक्त पात्र में रखा हुआ था। इसके पश्चात् सभी प्रकार की गंधों से युक्त चिता बनायी गयी और उस पर शव रख दिया गया। तब महाकस्सप एवं पाँच सौ अन्य बौद्धों ने जो साथ में आये थे, अपने परिधानों को कंधों पर सजाया (उसी प्रकार जिस प्रकार ब्राह्मण लोग अपने यज्ञोपवीत को धारण करते हैं), उन्होंने बद्धबाहु होकर सिर झुकाया और श्रद्धापूर्वक शव की तीन बार प्रदक्षिणा की। इसके उपरान्त शव का दाह किया गया, केवल अस्थियाँ बच गयीं। इसके उपरान्त मगधराज अजातशत्रु, वैशाली के लिच्छवियों आदि ने बुद्ध के अवशेषों पर अपना-अपना अधिकार जताना आरम्भ कर दिया । बुद्ध के अवशेष आठ भागों में बाँटे गये। जिन्हें ये भाग प्राप्त हुए उन्होंने उन पर स्तूप (धूप) बनवाये, मोरिय लोगों ने जिन्हें केवल राख मात्र प्राप्त हुई थी, उस पर स्तूप बनवाया और एक ब्राह्मण द्रोण (दोन) ने उस घड़े पर, जिसमें अस्थियाँ एकत्र कर रखी गयी थीं, एक स्तूप बनवाया। श्री राइस डेविड्स ने कहा है कि यद्यपि ऐतिहासिक ग्रंथों एवं जन्म-गाथाओं में अन्त्येष्टियों का वर्णन मिलता है किन्तु कहीं भी प्रचलित धार्मिक क्रिया आदि की ओर संकेत नहीं मिलता। ऐसा कहा जा सकता है कि बौद्ध अन्त्येष्टि-क्रिया, यद्यपि सरल है, तथापि वह आश्वलायनगृह्यसूत्र के कुछ नियमों से बहुत कुछ मिलती है।
४२. देखिए जे० आर० ए० एस० (१९०६, पृ० ६५५-६७१ एवं ८८१-९१३) में प्रकाशित फ्लीट के लेख, जो महापरिनिब्बान-सुत्त, दिव्यावदान, फाहियान के ग्रंथ, सुमंगलविलासिनी एवं अन्य ग्रंथों के आधार पर लिखे गये ऐसे लेख हैं, जो बुद्ध की अस्थियों एवं भस्म के बंटवारे अथवा उन पर बने स्तूपों पर प्रकाश डालते हैं। फ्लीट का कहना है कि पिप्रहवा अवशेष-कुंभ में, जिस पर एक अभिलेख है, जो अब तक पाये गये अभिलेखों में सबसे पुराना है (लगभग ईसापूर्व सन् ३७५) और जिसमें सात सौ वस्तुएँ पायो गयो हैं, भगवान बुद्ध के अवशेष चिह्न नहीं हैं, प्रत्युत उनके सम्बन्धियों के हैं। फ्लीट ने एक परम्परा की ओर संकेत किया है जो यह बतलाती है कि सम्राट अशोक ने बुद्ध के अवशेष-चिह्नों पर बने ८ स्तूपों में ७ को खोदकर उनमें पाये गये अवशेषों को ८४००० सोने और चांदी के पात्रों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org