________________
११३६
धर्मशास्त्र का इतिहास
सिन्धु ( पृ० ६३४ - ६३५ ) । गाड़ने के उपरान्त गड्ढे को भली भांति बालू से ढंक दिया जाता है, जिससे कुत्ते, शृगाल आदि शव को ( पंजों से गड्ढा खोदकर ) निकाल न डालें । धर्मसिन्धु ( पृ० ४९७ ) ने लिखा है कि मस्तक को शंख या कुल्हाड़ी से छेद देना चाहिए, यदि ऐसा करने में असमर्थता प्रदर्शित हो तो मस्तक पर गुड़ की भेली रखकर उसे ही तोड़ देना चाहिए। इसने भी यही कहा है कि कुटीचक को छोड़कर कोई यति नहीं जलाया जाता। आजकल सभी यति गाड़े जाते हैं, क्योंकि बहूदक एवं कुटीचक आजकल पाये नहीं जाते, केवल परमहंस ही देखने में आते हैं। यतियों को क्यों गाड़ा जाता है ? सम्भवतः उत्तर यही हो सकता है कि वे गृहस्थों की भाँति श्रोताग्नियाँ या स्मार्ताग्नियाँ नहीं रखते और वे लोग भोजन के लिए साधारण अग्नि भी नहीं जलाते । गृहस्थ लोग अपनी श्रौत या स्मार्त अग्नियों के साथ जलाये जाते हैं, किन्तु यति लोग बिना अग्नि के होते हैं अतः गाड़े जाते हैं। गाड़ने की विधि के लिए देखिए वैखानसस्मार्तसूत्र ( २०१८ ) ।
जो स्त्रियाँ बच्चा जनते समय या जनने के तुरत उपरान्त ही या मासिक धर्म की अवधि में मर जाती हैं, उनके शवदाह के विषय में विशिष्ट नियम हैं। मिताक्षरा द्वारा उद्धृत एक स्मृति एवं स्मृतिचन्द्रिका ( १, पृ० १२१ ) ने सूतिका के विषय में लिखा है कि एक पात्र में जल एवं पंचगव्य लेकर मन्त्रोचारण (ऋ० १०/९1१-९, 'आपो हि ष्ठा') करना चाहिए और उससे सूतिका को स्नान कराकर जलाना चाहिए। मासिक धर्म वाली मृत नारी को भी इसी प्रकार जलाना चाहिए किन्तु उसे दूसरा वस्त्र पहनाकर जलाना चाहिए। देखिए गरुड़पुराण (२।४।१७१ ) एवं निर्णयसिन्धु ( पृ० ६२१) । इसी प्रकार गर्भिणी नारी के शव के विषय में भी नियम हैं (बौघा० पि० सू० ३।९; निर्णयसिन्धु पृ० ६२२ ) जिन्हें हम यहाँ नहीं दे रहे हैं।
३९
विभिन्न कालों एवं विभिन्न देशों में शव-क्रिया ( अन्त्येष्टि-क्रिया) विभिन्न ढंगों से की जाती रही है। अन्त्येष्टिक्रिया के विभिन्न प्रकार ये हैं--जलाना ( शव - दाह), भूमि में गाड़ना, जल में बहा देना, शव को खुला छोड़ देना, जिससे चील, गिद्ध, कौए या पशु आदि उसे खा डालें (यथा पारसियों में), " गुफाओं में सुरक्षित रख छोड़ना या ममीरूप में ( यथा मिस्र में ) सुरक्षित रख छोड़ना ।" जहाँ तक हमें साहित्यिक प्रमाण मिलता है, भारत में सामान्य नियम शव को जला देना ही था, किन्तु अपवाद मी थे, यथा - शिशुओं, संन्यासियों आदि के विषय में। प्राचीन भारतीयों ने शवदाह की वैज्ञानिक किन्तु कठोर हृदय वाली विधि किस प्रकार निकाली, यह बतलाना कठिन है। प्राचीन भारत में शव को गाड़ देने की बात अज्ञात नहीं थी ( अथर्ववेद ५ । ३०।१४ मा नु भूमिगृहो भुवत्' एवं १८ |२| ३४ ) । अन्तिम मन्त्र का रूप यों है -- "हे अग्नि, उन सभी पितरों को यहाँ ले आओ, जिससे कि वे हवि ग्रहण करें, उन्हें भी बुलाओ जिनके शरीर गाड़े गये थे या खुले रूप में छोड़ दिये गये थे या ऊपर ( पेड़ों पर या गुहाओं में ? ) रख दिये गये
३९. पारसियों के शास्त्रों के अनुसार शव को गाड़ देना महान् अपराध माना जाता है. यदि शव कब्र से बाहर नहीं निकाला गया तो मज्द के कानून के प्राध्यापक (शिक्षक) के विषय में कोई प्रायश्चित्त नहीं है, या उसके लिए भी कोई प्रायश्चित्त नहीं है जिसने मज्द के कानून को पढ़ा है, और जब वे छः मास या एक वर्ष के भीतर शव को कब से बाहर नहीं निकालते तो उन्हें क्रम से ५०० या १००० कोड़े खाने पड़ते हैं। देखिए वेंडिडाड, फर्गार्ड ३ (संकेड बुक आफ दि ईस्ट, जिल्द ४, पृ० ३१-३२ ) । पर्वतों के शिखरों पर शव रख दिये जाते हैं और उन्हें पक्षीगण एवं कुत्ते खा डालते हैं। शव को खुला छोड़ देना मज्द रीति को अत्यन्त विचित्र बात है 1
४०. पियाज्जा बर्बेरिनी के पास रोम के कपूचिन चर्च के भूगर्भ कब्रगाहों की दीवारों में ४००० पादरियों की हड्डियां सुरक्षित हैं। देखिए पकूल की पुस्तक 'फ्यूनरल कस्टम्स ( पृ० १३६ ) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org