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________________ बासक, यति एवं अशचि स्त्रियों का अन्तिम संस्कार ११३५ तर्पण करना चाहिए और न उनका अस्थि-चयन करना चाहिए। सम्बन्धी साथ में नहीं भी जा सकते हैं। यम ने यमसूक्त (ऋ० १०।१४) के पाठ एवं यम के सम्मान में स्तुतिपाठ करने की व्यवस्था दी है। मनु (५।७०) ने कुछ वैकल्पिक व्यवस्थाएँ दी हैं, यथा--दांत वाले बच्चों या नामकरण-संस्कृत बच्चों के लिए जल-तर्पण किया जा सकता है, अर्थात ऐसे बच्चों का शवदाह भी हो सकता है। अतः दो वर्ष से कम अवस्था के बच्चों की अन्त्येष्टि के विषय में विकल्प है, अर्थात् नामकरण एवं दाँत निकलने के उपरान्त ऐसे बच्चे जलाये या गाड़े जा सकते हैं। किन्तु ऐसा करने में सभी सपिण्डों का शव के साथ जाना आवश्यक नहीं है। यदि बच्चा दो वर्ष का हो या अधिक अवस्था का हो किन्तु अभी उपनयन संस्कार न हुआ हो तो उसका दाहकर्म लौकिक अग्नि से अवश्य होना चाहिए और मौनरूप से जल देना चाहिए। लोगाक्षि के मत से चूड़ाकरण-संस्कृत बच्चों की अन्त्येष्टि भी इसी प्रकार होनी चाहिए। वैखानसस्मार्तसूत्र (५।११) ने कहा है कि ५ वर्ष के लड़के तथा ७ वर्ष की लड़की का दाहकर्म नहीं होता। उपनयन के उपरान्त आहिताग्नि की भांति दाहकर्म होता है किन्तु यज्ञपात्रों का दाह एवं मन्त्रोच्चारण नहीं होता । बौधा० पि० सू० (२।३१०-११) ने व्यवस्था दी है कि चूड़ाकरण के पूर्व मृत बच्चों का शवदाह नहीं होता, कुमारी कन्याओं एवं उपनयन-रहित लड़कों का पितृमेव नहीं होता। उसने यह भी व्यवस्था दी है कि बिना दाँत के बच्चों को 'ओम्' के साथ तथा दाँत वाले बच्चों को व्याहृतियों के साथ गाड़ा जाता है। मिताक्षरा (याज्ञ. ३१२) ने नियमों को निम्न रूप से दिया है'नामकरण के पूर्व केवल गाड़ा जाता है, जल-तर्पण नहीं होता; नामकरण के उपरान्त तीन वर्ष तक गाड़ना या जलाना (जलतर्पण के साथ) विकल्प से होता है; तीन वर्ष से उपनयन के पूर्व तक शवदाह एवं तर्पण मौन रूप से (बिना मन्त्रों के) होता है; यदि तीन वर्ष के पूर्व चूड़ाकरण हो गया हो तो मरने पर यही नियम लागू होता है। उपनयन के उपरान्त मृत का दाहकर्म लौकिक अग्नि से होता है किन्तु ढंग वही होता है जो आहिताग्नि के लिए निर्धारित है।' यति (संन्यासी) को प्राचीन काल में भी गाड़ा जाता था। ऊपर ऋतु का मत प्रकाशित किया गया है कि ब्रह्मचारी एवं यति का शव उत्तपन अग्नि से जलाया जाता है। इस विषय में शुद्धिप्रकाश (पृ० १६६) ने व्याख्या उपस्थित की है कि यहाँ पर यति कुटीचक श्रेणी का संन्यासी है और उसने यह भी बताया है कि चार प्रकार के संन्यासी लोगों (कुटीचक, बहूदक, हंस एवं परमहंस) की अन्त्येष्टि किस प्रकार से की जाती है। बौधा पि० सू० (३.११) ने संक्षेप में लिखा है, जिसे स्मृत्यर्थसार (पृ० ९८) ने कुछ अन्तरों के साथ ग्रहण कर लिया है और परिव्राजक की अन्त्येष्टि क्रिया का वर्णन उपस्थित किया है--किसी को ग्राम के पूर्व या दक्षिण में जाकर पलाश वृक्ष के नीचे या नदी-तट पर या किसी अन्य स्वच्छ स्थल पर व्याहृतियों के साथ यति के दण्ड के बराबर गहरा गड्ढा खोदना चाहिए; इसके उपरान्त प्रत्येक बार सात व्याहृतियों के साथ उस पर तीन बार जल छिड़कना चाहिए, गड्ढे में दर्भ बिछा देना चाहिए, माला, चन्दन-लेप आदि से शव को सजा देना चाहिए और मन्त्रों (तै० सं० १११।३।१) के साथ शव को गड्ढे में रख देना चाहिए। परिव्राजक के दाहिने हाथ में दण्ड तीन खण्डों में करके थमा देना चाहिए और ऐसा करते समय (ऋ० २२२२१७; वाज० सं० ५।१५ एवं तै० सं० १।२।१३।१ का) मन्त्रपाठ करना चाहिए। शिक्य को बायें हाथ में मन्त्रों (तै० सं० ४।२।५।२) के साथ रखा जाता है और फिर क्रम से पानी छाननेवाला वस्त्र मुख परं (ते. ब्रा० ११४।८१६ के मन्त्र के साथ), गायत्री मन्त्र (ऋ० ३१६२११०; बाज० सं० ३।३५; तै० सं० ११५।६।४) के साथ पात्र को पेट पर और जलपात्र को गप्तांगों के पास रखा जाता है। इसके उपरान्त 'चतु)तारः' मन्त्रों का पाठ किया जाता है। अन्य कृत्य नहीं किये जाते; न तो शवदाह होता, न अशौच मनाया जाता और न जल-तर्पण ही किया जाता है, क्योंकि यति संसार की विषयवासना से मुक्त होता है। स्मृत्यर्थसार ने इतना जोड़ दिया है कि न तो एकोद्दिष्ट श्राद्ध और न सपिण्डीकरण ही किया जाता है, केवल ग्यारहवें दिन पार्वण श्राद्ध होता है। किन्तु कुटोचक जलाया जाता है, बहूवक गाड़ा जाता है, हंस को जल में प्रवाहित कर दिया जाता है और परमहंस को भली भाँति गाड़ा जाता है। और देखिए निर्णय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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