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________________ ११२६ धर्मशास्त्र का इतिहास चार आहुति यह कहकर डालता है-'अग्नि को स्वाहा! सोम को स्वाहा ! लोक को स्वाहा! अनुमति को स्वाहा!' पांचवीं आहुति शव की छाती पर यह कहकर दी जाती है 'यहाँ से तू उत्पन्न हुआ है ! वह तुझसे उत्पन्न हो, न न। स्वर्गलोक को स्वाहा (वाजसनेयी संहिता २५।२२)। इसके उपरान्त आश्वलायनगृह्यसूत्र (४।४।२-५) यह बताता है कि यदि आहवनीय अग्नि या गार्हपत्य या दक्षिण अग्नि शव के पास प्रथम पहुँचती है या सभी अग्नियाँ एक साथ ही शव के पास पहुँचती हैं तो क्या समझना चाहिए; और जब शव जलता रहता है तो वह उस पर मन्त्रपाठ करता है (ऋ० १०।१४।७ आदि)। जो व्यक्ति यह सब जानता है, उसके द्वारा जलाये जाने पर धूम के साथ मृत व्यक्ति स्वर्गलोक जाता है, ऐसा ही (श्रुति से) ज्ञात है। 'इमे जीवाः' (ऋ० १०।१८५३) के पाठ के उपरान्त सभी (सम्बन्धी) लोग दाहिने से बायें घूमकर बिना पीछे देखे चल देते हैं। वे किसी स्थिर जल के स्थल पर आते हैं और उसमें एक बार डुबकी लेकर और दोनों हाथों को ऊपर करके मृत का गोत्र, नाम उच्चारित करते हैं, बाहर आते हैं, दूसरा वस्त्र पहनते हैं, एक बार पहने हुए वस्त्र को निचोड़ते हैं और अपने कुरतों के साथ उन्हें उत्तर की ओर दूर रखकर वे तारों के उदय होने तक बैठे रहते हैं या जब सूर्यास्त का एक अंश दिखाई देता है तो वे घर लौट आते हैं, छोटे लोग पहले और बूढ़े लोग अन्त में प्रवेश करते हैं। घर लौटने पर वे पत्थर, अग्नि, गोबर, मुने जौ, तिल एवं जल स्पर्श करते हैं। और देखिए शतपथ ब्राह्मण (१३।८।४।५) एवं वाजसनेयी संहिता (३५-१४, ऋ० ११५०।१०) जहाँ अन्य कृत्य भी दिये गये हैं, यथा स्नान करना, जल-तर्पण करना, बैल को छूना, आँख में अंजन लगाना तथा शरीर में अंगराग लगाना। गृह्यसूत्रों में वर्णित अन्य बातें स्थानाभाव से यहां नहीं दी जा सकतीं। कुछ मनोरंजक बातें दी जा रही हैं। शतपथ ब्राह्मण (१३।८।४।११) एवं पारस्करगृह्यसूत्र (३।१०।१०) ने स्पष्ट लिखा है कि जिसका उपनयन संस्कार हो चुका है उसकी अन्त्येष्टि-क्रिया उसी प्रकार की जाती है जिस प्रकार श्रौत अग्निहोत्र करनेवाले व्यक्ति की, अन्तर केवल इतना होता है कि आहिताग्नि तीनों वैदिक अग्नियों के साथ जला दिया जाता है, जिसके पास केवल स्मार्त अग्नि या औपासन अग्नि होती है, वह उसके साथ जला दिया जाता है और साधारण लोगों का शव केवल साधारण अग्नि से जलाया जाता है। देवल का कथन है कि साधारण अग्नि के प्रयोग में चाण्डाल की अग्नि या अशुद्ध अग्नि या सूतकगृह-अग्नि या पतित के घर की अग्नि या चिता की अग्नि का व्यवहार नहीं करना चाहिए। पितदयिता के मत से जिसने अग्निहोत्र न किया हो, उसके लिए 'अस्मात् त्वम् आदि' मंत्र का पाठ नहीं करना चाहिए। पार० गृ० सूत्र ने व्यवस्था दी है कि एक ही गाँव के रहनेवाले संबंधी एक ही प्रकार का कृत्य करते हैं, वे एक ही वस्त्र धारण करते हैं, यज्ञोपवीत को दाहिने कंधे से लटकाते हैं और बायें हाथ की चौथी अंगुली से वाजसनेयी संहिता (३५।६) के साथ जल तर्पण करते हैं तथा दक्षिणाभिमुख होकर जल में डुबकी लेते हैं और अंजलि से एक बार जल तर्पण करते हैं। आप० घ० सू० (२।६।१५।२-७) का कथन है कि जब किसी व्यक्ति की माता या पिता की सातवीं पीढ़ी के संबंधी या जहाँ तक वंशावली ज्ञात हो, वहाँ तक के व्यक्ति मरते हैं तो एक वर्ष से छोटे बच्चों को छोड़कर सभी लोगों को स्नान करना चाहिए। जब एक वर्ष से कम अवस्था वाला बच्चा मरता है तो माता-पिता एवं उनको जो बच्चे का शव ढोते हैं, स्नान करना चाहिए। उपर्युक्त सभी लोगों को बाल नहीं संवारने चाहिए, बालों से धूल हटा देनी चाहिए, एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए, दक्षिणाभिमख होना चाहिए, पानी में डबकी लगानी चाहिए, मत को तीन बार जल तर्पण करना चाहिए और नदी या जलाशय के पास बैठ जाना चाहिए, इसके पश्चात गाँव को लौट आना चाहिए तथा स्त्रियां जो कुछ कहें उसे करना चाहिए (अग्नि, पत्थर, बैल आदि स्पर्श करना चाहिए)। याज्ञ० (३२) ने भी ऐसे नियम दिये हैं और 'अप नः शोशचद अघम' (ऋ० ११९७१: अथर्व० ४।३३।१ एवं तैत्तिरीयारण्यक ६।१०।१) के पाठ की व्यवस्था दी है। गौतमपितृमेधसूत्र (२।२३) के मत से चिता का निर्माण यज्ञिय वृक्ष की लकड़ी से करना चाहिए और सपिण्ड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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