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________________ अग्निहोत्री का बाहसंस्कार हाथ में जुहू नामक चमस, बायें हाथ में उपभृत चमस, दाहिनी ओर स्फध (काठ की तलवार ), बायीं ओर अग्निहोत्रहवणी ( वह दव या चमस जिससे अग्नि में हवि डाली जाती है), छाती, सिर, दाँतों पर क्रम से खुत्र ( बड़ी यज्ञिय दर्वी), पात्र ( या कपाल अर्थात् गोल पात्र ) एवं रस निकालने वाले प्रस्तर खण्ड ( पत्थर के वे टुकड़े जिनसे सोमरस निकाला जाता है), दोनों नासिका रंध्रों पर दो छोटे-छोटे स्रुव, कानों पर दो प्राशित्र हरण" (यदि एक ही हो तो दो टुकड़े करके), पेट पर पात्री (जिसमें हवि देने के पूर्व हव्य एकत्र किये जाते हैं) एवं चमस (जिसमें इडा भाग काटकर रखा जाता है), गुप्तांगों पर शम्या, जाँघों पर दो अरणियाँ (जिनके घर्षण से अग्नि प्रज्वलित की जाती है), पैरों पर उखल (ओखली) एवं मुसल (मूसल), पाँवों पर सूर्य (सूप) या यदि एक ही हो तो उसे दो भागों में करके । वे वस्तुएँ जिनमें गड्ढे होते हैं (अर्थात् जिनमें तरल पदार्थ रखे जा सकते हैं), उनमें पृषदाज्य (घृत एवं दही का मिश्रण ) भर दिया जाता है । मृत के पुत्र को स्वयं चक्की के ऊपरी एवं निचले पाट ग्रहण करने चाहिए, उसे वे वस्तुएँ भी ग्रहण करनी चाहिए जो ताम्र, लोह या मिट्टी की बनी होती हैं। किस वस्तु को कहाँ रखा जाय, इस विषय में मतैक्य नहीं है । जैमिनि (११|३ | ३४) का कथन है कि यजमान के साथ उसकी यज्ञिय वस्तुएँ (वे उपकरण या वस्तुएँ जो यज्ञ-सम्पादन के काम आती हैं) जला दी जाती हैं और इसे प्रतिपत्ति कर्म नामक प्रमेय (सिद्धान्त ) की संज्ञा दी जाती है। अर्थात् इसे यज्ञपात्रों का प्रतिपत्तिकर्म कहा जाता है।" शतपथ ब्राह्मण (१२/५/२/१४) का कथन है कि पत्थर एवं मिट्टी के बने यज्ञ-पात्र किसी ब्राह्मण को दान दे देने चाहिए, किन्तु लोग मिट्टी के पात्रों को शववाहन समझते हैं, अतः उन्हें जल में फेंक देना चाहिए । अनुस्तरणी ( बकरी या गाय ) की वपा निकालकर उससे ( अन्त्येष्टि क्रिया करनेवाले द्वारा ) मृत के मुख एवं सिर को ढँक देना चाहिए और ऐसा करते समय 'अग्नेर्वर्म' (ऋ० १०।१६।७ ) का पाठ करना चाहिए। पशु के दोनों वृक्क निकालकर. मृत के हाथों में रख देने चाहिए— दाहिना वृक्क दाहिने हाथ में और बायाँ बायें हाथ में - और 'अतिद्रव' (ऋ० १०/१४ । १०) का केवल एक बार पाठ करना चाहिए। वह पशु के हृदय को शव के हृदय पर रखता है, कुछ लोगों के मत से मात या जौ के आटे के दो पिण्ड भी रखता है। " शव के अंगों पर पशु के वही अंग काट-काटकर रख देता है और पुनः उसकी खाल से शव को ढँककर प्रणीता के जल को आगे ले जाते समय वह (अन्त्येष्टि कर्म करने वाला) 'इमम् अग्ने' (ऋ० १०।१६।८) का आह्वान के रूप में पाठ करता है । अपना बायाँ घुटना मोड़कर वह दक्षिण-अग्नि में घृत की ११२५ २८. प्राशित्रहरण वह पात्र है जिसमें ब्रह्मा पुरोहित के लिए पुरोडाश का एक भाग रखा जाता है। शम्या हल जुए की कॉटी को कहा जाता है। के २९. कात्यायनश्रौतसूत्र के अनुसार अनुस्तरणी पशु को कान के पास घायल करके मारा जाता है। जातूकर्ण्य के मत से शव के विभिन्न भागों पर पशु के उन्हीं भागों के अंग रखे जाते हैं। किन्तु कात्यायन इसे नहीं मानते क्योंकि ऐसा करने पर जलाने के पश्चात् अस्थियों को एकत्र करते समय पशु की अस्थियाँ भी एकत्र हो जायेंगी, अतः उनके मत से केवल मांस-भाग ही शव के अंगों में लगाना चाहिए। मिलाइए शतपथब्राह्मण ( १२१५१९-१२) । आश्वलायनगृह्यसूत्र (४१२१४ ) ने (जैसी कि नारायण ने व्याख्या की है) कहा है कि पशु का प्रयोग विकल्प से होता है, अर्थात् या तो पशु काटा जा सकता है या छोड़ दिया जा सकता है या किसी ब्राह्मण को दे दिया जा सकता है (देखिए बौधायनपितृमेघसूत्र १।१०।२ भी ) । शांखायनश्रौतसूत्र (४) १४।१४-१५) का कथन है कि मारे गये या जीवित पशु के दोनों वृक्क पीछे से निकालकर दक्षिण अग्नि में थोड़ा गर्म करके मृत के दोनों हाथों में रख देने चाहिए और 'अतिद्रव' (ऋ० १०।१४।१०-११) का पाठ करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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