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अग्निहोत्री का दाहसंस्कार
११२३ उपरान्त किसी घड़े में अस्थियाँ एकत्र करनी चाहिए, घड़े को तीर्थ की तरफ से ले जाना चाहिए और उस आसन पर रखना चाहिए जहाँ मृत यजमान बैठता था।"
शांखायनश्रौतसूत्र (४।१४-१५) ने आहिताग्नि की अन्त्येष्टि-क्रिया के विषय में विस्तार के साथ लिखा है: कात्यायनश्रौतसूत्र (२५।७) ने यही बात संक्षेप में कही है। कात्या० (२५।७।१८) ने केश एवं नख काटने एवं मल-पदार्थ निकाल देने की चर्चा की है। कौशिकसूत्र (८०।१३-१६) एवं शांखायनश्रौतसूत्र (४।१४।४-५) ने भी केश काटने, शव को स्नान कराने, लेप करने एवं माला-पुष्प रखने की बात कही है। बौधायनपितृमेधसूत्र (११२) ने इन सब बातों की ओर संकेत किया है और इतना जोड़ दिया है कि यदि वे दाहिनी ओर से अंतड़ियाँ काटकर निकालते हैं तो उन्हें पुनः दर्भ से सी देते हैं या वे केवल शरीर को स्नान करा देते हैं (बिना मल स्वच्छ किये), उसे वस्त्र से ढंक देते हैं, सँवारते हैं, आसन्दी पर, जिस पर काला मगचर्म (जिसका मुख वाला भाग दक्षिण ओर रहता है) बिछा रहता है, रख देते हैं, उस पर नलद की माला रख देते हैं, और उसे नवीन वस्त्र से ढंक देते हैं (जैसा कि ऊपर आश्वलायनश्रौतसूत्र के अनुसार लिखा गया है) · सत्याषाढश्रौतसूत्र (२८।१।२२) एव गौतमपितृमेधसूत्र (१।१०-१४) में भी ऐसी बातें दी हुई हैं और यह भी है कि दाव के हाथ एवं पैर के अंगूठे श्वेत मूत्रों या वस्त्र के अंचल भाग से बाँध दिये जाते हैं और आसन्दो (वह छोटा सा पलंग या कुर्सी जिस पर शव रखकर ढोया जाता है) उदुम्बर लकड़ी की बनी होती है। कौशिकमूत्र (८०।३।३।४५) ने अथर्ववेद के बहत-से मन्त्रों का उल्लेख किया है जो चिता जलाने एवं हवि देते समय कहे जाते हैं, यथा १८।२।४ एवं ३६; १८।३।४; १८/११४९-५० एवं ५८; १८।१४१-४३, ७।६८११-२; १८।३।२५; १८।२।४.१८ (१८।२।१० को छोड़कर); १८।४।१-१५ आदि।
आश्वलायनगृह्यसूत्र (४।१ एवं २) ने आहिताग्नि की मृत्यु से सम्बन्धित सामान्य कृत्यों का वर्णन किया है, किन्तु आश्वलायनश्रौतसूत्र (जिसका वर्णन ऊपर किया गया है) ने उस आहिताग्नि की अन्त्येष्टि का वर्णन किया
अन्य यज्ञों में लगे रहते समय मर जाता है। आश्वलायनगवसत्र का कहना है-"जब आहिताग्नि मर जाता है तो किसी को (पुत्र या कोई अन्य सम्बन्धी को) चाहिए कि वह दक्षिण-पूर्व में या दक्षिण-पश्चिम में ऐसे स्थान पर भमि-खण्ड खदवाये जो दक्षिण या दक्षिण-पूर्व की ओर ढाल हो,या कछ लोगों के मत से वह भमि-खण्ड दक्षिणपश्चिम की ओर भी ढाल हो सकता है। गडढा एक उठे हए हाथों वाले पुरुष की लम्बाई का, एक व्याम (पूरी बाँह तक लम्बाई) के बराबर चौड़ा एवं एक वितस्ति (बारह अंगुल) गहरा होना चाहिए। श्मशान चतुर्दिक खुला रहना चाहिए। इसमें जड़ी-बूटियों का समूह होना चाहिए, किन्तु कँटीले एवं दुग्धयुक्त पौधे निकाल बाहर कर देने चाहिए (देखिए आश्व० गृह्य० २।७५, वास्तु-परीक्षा)। उस स्थान से पानी चारों ओर जाता हो, अर्थात् श्मशान कुछ ऊँची भूमि पर होना चाहिए। यह सब उस श्मशान के लिए है जहाँ शव जलाया जाता है। उन्हें शव के सिर के केश एवं नख काट
२४. चात्वाल एवं उत्कर के मध्य वाले यज्ञ-स्थान को जानेवाला मार्ग तीर्थ कहा जाता है। देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय २९। स्तोत्रिय के लिए देखिए खण्ड २, अध्याय ३३ । शतपथब्राह्मण (१२।५।२।५) ने मृत व्यक्ति के शरीर से सभी गन्दे पदार्थो के निकाल देने की परम्परा की ओर संकेत किया है, किन्तु इसे अकरणीय ठहराया है। उसका इतना ही कथन है-'उसके भीतर को स्वच्छ कर लेने के उपरान्त वह उस पर घृत का लेप करता है और इस प्रकार शरीर को यज्ञिय रूप में पवित्र कर देता है।'
२५. प्रयोगरत्न के सम्पादक ने नलद को उशीर कहा है। कुछ ग्रन्थों में नलद के स्थान पर जपा पुष्प की बात कही गयी है।
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