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स्वर्ग का स्वरूप
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नामक पितरों के दल रहते हैं। अग्निपुराण (३१।१३-१४) का दृढ़तापूर्वक कथन है कि नरकों के २८ दल पृथिवी के नीचे, यहाँ तक कि सातवें लोक पाताल के नीचे हैं।
हमें निम्न प्रकार के वैदिक वचन मिलते हैं-'यह यज्ञ के पात्रों वाला यजमान सीधे स्वर्ग जाता है' (शत० ब्रा० १२।५।२।८); 'स्वर्ग चाहने वाले को दर्श- पूर्णमास यज्ञ करना चाहिए; ' 'स्वर्ग तक पहुँचने वाले को ज्योतिष्टोम यज्ञ करना चाहिए ।' 'स्वर्ग' एवं 'नरक' के तात्पर्य के विषय में आदि काल से ही गर्मागर्म विवाद चलता आया है। जैसा कि वेदों, स्मतियों एवं पुराणों के कथनों से प्रकट होता है, आरम्भिक काल से लोकप्रसिद्ध मत यही रहा है कि स्वर्ग पृथिवी से ऊपर एवं नरक पृथिवी से नीचे है। प्राचीन ज्योतिष-ग्रन्थों में भी स्वर्ग पृथिवी से सहस्रों योजन ऊपर माना गया है । वराहमिहिर से पहले के पराशर नामक ज्योतिषी ने कहा है – 'म ( पृथिवी ) ६७,०८० करोड़ योजन है और यही इसका विस्तार है; इसके आगे अगम्य तम है, जिसके बीच में सुनहला मेरु पर्वत है, स्वर्ग ८४,००० योजन ऊँचा है, १६ योजन नीचा है और तिगुना लम्बाई-चौड़ाई में है । " किन्तु यह कहना सत्य नहीं ठहरेगा कि सभी लेखक स्वर्ग एवं नरक के स्थानों के वास्तविक अस्तित्व के विषय में एकमत हैं। यह बात बहुत पहले कही जा चुकी है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व गौतम बुद्ध ने अपने पहले के लोगों का मत प्रकाशित कर दिया था कि नरक कोई एक स्थान नहीं है, प्रत्युत वह है किसी वर्ण के लिए निर्धारित कर्मों के करने की अक्षमता का द्योतक । कुछ अन्य लोगों ने भी इसी प्रकार का तर्क उपस्थित किया है। शबर (जैमिनि ४।३।२७-२८ ) ने श्रुति-वचन उद्धृत कर कहा है कि यज्ञों से दूसरे जीवन में फल मिलता है (जैसा कि श्रुति ने वचन दिया है) । कुमारिल ने इस विषय में टीका करते हुए कहा है कि वेद - विधि केवल कर्मफल का वचन देती है, किन्तु यह नहीं कहती कि इसी जीवन में यह फल अनुसरित होने लगता है, स्वर्ग,
अपूर्व आनन्द देनेवाला है, जन्मान्तर में ही प्रतिफलित होता है। शबर ने सर्वप्रथम स्वर्ग का तात्पर्य लौकिक अर्थ में दिया है, यथा-- वहाँ सुन्दर रेशमी वस्त्र, चन्दन, अंगराग, षोडशियाँ प्राप्त होती हैं। शबर ने स्वर्ग के विषय में लौकिक मत यह भी दिया है कि वह एक ऐसा स्थान है जहाँ न गर्मी है न शीत, जहाँ न भूख है न प्यास, जहाँ न कष्ट है न थकावट, जहाँ केवल पुण्यवान् ही जाते हैं अन्य नहीं । शबर ने ऐसे मत का खण्डन किया है और कहा है कि स्वर्ग का मौलिक अर्थ है प्रीति (आनन्द) या उल्लास (हर्ष ), वह द्रव्य नहीं है, जिससे आनन्द की प्राप्ति होती है । " स्वर्ग की एक प्रसिद्ध परिभाषा यह है - ( यह वह ) आनन्द है जो दुःखरहित है, आगे दुःख से ग्रसित नही होता, इच्छा करने पर उपस्थित हो जाता है और वही 'स्व:' ( या स्वर्ग) शब्द से द्योतित होता है ।" और देखिए
२०. भूमेरधस्तात्ते सर्वे रौरवाद्याः प्रकीर्तिताः । गरुड० ( प्रेतखण्ड, ३१५५ ) ; ब्रह्माण्ड (उपसंहारपाद, २१५२ ) ; ततश्च नरकान् विप्र भुवोऽधः सलिलस्य च । पापिनो येषु पात्यन्ते तान् शृणुष्व महामुने ॥ ब्रह्मपुराण (२२/६/१ ) । राजोवाच । नरका नाम भगवन् किं देशविशेषा अथवा बहिस्त्रिलोक्या आहो स्विवन्तराल इति । ऋषिरुवाच । अन्तराल एव त्रिजगत्यास्तु दिशि दक्षिणस्यामधस्ताद् भूमेरुपरिष्टाच्च जलाद्यस्यामग्निष्वासावयः पितृगणाः . . . निवसन्ति | भागवत ० ( ५।२६।३ - ४ ) ।
२१. सप्तषष्टिसहस्राण्यशीतियोजनकोट्यो भूर्यत्पृथिवीमण्डलं परस्मादगम्यं तमः । तन्मध्ये हिरण्मयो मेरुचतुरशीतियोजनसहस्रोच्छ्रितो षोडश चाधस्तात् । त्रिगुणविस्तारायामो यं स्वर्णमाचक्षते सम्मध्येनार्कचन्द्रो ज्योतिश्चक्रं च पर्येति । पराशर (बृहत्संहिता १।११ की टीका में उत्पल द्वारा उद्धृत ) ।
२२. देखिए दुपटीका (जै० ४।३।२७-२८), शबर (जै० ६।१।१ एवं ६।१।२) । २३. यत्र दुःखेन संभिनं न च प्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपनीतं च तत्सुखं स्वःपदास्पदम् ॥
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