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________________ ११०४ धर्मशास्त्र का इतिहास उल्लेख किया है जिनसे स्वर्ग-प्राप्ति होती है। और देखिए अनुशासन० (१४४।५।१५, १९-२६ एवं ३१-३९; १४५)। शान्तिपर्व (९९।४-५) में आया है कि स्वर्ग रण में मृत वीरों से पूर्ण है, वहाँ गन्धर्वकुमारियां रहती हैं, स्वर्ग में सभी कांक्षाएं पूर्ण होती हैं, कायरों को नरक मिलता है। शातिपर्व (१९२।८ एवं २१) में आया है कि स्वर्ग उत्तर में है, वहाँ भूख, प्यास, थकावट, जरा, पाप (१९१।१३; १९३।२७) नहीं होते; अच्छे व्यक्ति नक्षत्र के समान दीखते हैं (२७१२२४)। मत्स्यपुराण (२७६३१७) में ऐसा आया है कि जो ब्रह्माण्डदान (१६ महादानों में एक) करता है वह विष्णुलोक जाता है और अप्सराओं के साथ आनन्द पाता है। और देखिए ब्रह्मपुराण (२२५।६-७), जहाँ ऐसा कहा गया है कि उदार दाता स्वर्ग जाता है, जहाँ उसे अप्सराओं द्वारा परमोच्च आनन्द मिलता है और वह नन्दनवन का उपभोग करता है; जब वह स्वर्ग से नीचे आता है तो धनी, कुलीन परिवार में जन्म पाता है। और देखिए गरुडपुराण (२१३१८६-८९)। आगे और कुछ लिखना आवश्यक नहीं है। स्वर्ग एवं उसके आनन्दों के विषय में दो बातें विचारणीय हैं--स्मृतियों एवं पुराणों में दान-सम्बन्धी हानि-लाभ की बातें दी हुई हैं। स्वर्ग के आनन्दोपभोग की एक सीमा है अर्थात् व्यक्ति पुनः लौट आता है और मनुष्य-देह धारण करता है। यह सिद्धान्त पुनः आगे बढ़ा और कहा गया कि केवल सत् कर्मों से ही जन्म-मरण (आवागमन) से छुटकारा नहीं मिल सकता। स्मृतियों एवं पुराणों में सविस्तर वर्णित नरक की भयानक यातनाओं का वर्णन यहाँ आवश्यक नहीं है। उदाहरणार्थ, विष्णुधर्मसूत्र (४३।३२-४५) का उद्धरण यों है-"नौ प्रकार के पापों में किसी एक के अपराधी को मरने पर यम के मार्ग में पहुंचने पर भयानक पीड़ाएँ सहनी पड़ती हैं। यम के किंकरों द्वारा इधर-उधर घसीटे जाने पर पापियों को भयंकर दृष्टि से घूरे जाते हुए नरक में जाना पड़ता है। वहाँ (नरक में) वे कुत्तों, शृगालों, कौओं, ऋचों, सारसों आदि पक्षियों द्वारा तथा अग्निमुख वाले सर्पो एवं बिच्छुओं द्वारा मक्षित किये जाते हैं। वे अग्नि द्वारा झुलसाये जाते हैं, कांटों द्वारा छेदे जाते हैं, आरियों द्वारा दो भाग में चीरे जाते हैं और प्यास से तड़पाये जाते हैं, मुख से प्रताड़ित किये जाते हैं, भयानक व्याघ्रों द्वारा पीड़ित होते हैं और मज्जा, पीव एवं रक्त की दुर्गन्ध से वे पग-पग पर मूच्छित होते रहते है। दूसरे के भोजन एवं पेय पदार्थों की लालसा रखने पर वे ऐसे यम- किंकरों द्वारा पीटे जाते हैं जिनके मुख कौओं, क्रौंचों, सारसों जैसे भयावह पशुओं के समान होते हैं। कहीं-कहीं उन्हें तेल में उबाला जाता है और कहीं-कहीं वे लोहे के टुकड़ों के साथ पीसे जाप्ते हैं या प्रस्तर या लोहे की ओखली में कूटे जाते हैं। कुछ स्थानों पर उन्हें वमन की हुई वस्तुएँ या मज्जा या रक्त या मल मूत्र खाने पड़ते हैं और दुर्गन्धयुक्त मज्जा के समान मांस खाना पड़ता है। कहीं-कहीं उन्हें भयावह अंधकार में रहना पड़ता है और वे ऐसे कीड़ों द्वारा खा डालं जात है जिनके मुंह से अग्नि निकलती रहती है। कहीं-कहीं उन्हें शीत सहना पड़ता है और कहीं-कहीं गन्दी वस्तुओं में चलना पड़ता है। कहीं-कहीं वे एक-दूसरे को खाने लगते हैं और इस प्रकार वे स्वयं अत्यन्त भयानक हो उठते हैं। कहीं-कहीं वे पूर्व कर्मों के कारण पीटे जाते हैं और कहीं-कहीं उन्हें (पेड़ों आदि से) लटका दिया जाता है या बाणों से विद्ध कर दिया जाता है या टुकड़ों में विभाजित कर दिया जाता है। कहीं-कहीं उन्हें काँटों पर चलाया जाता है और सांपों के फणों से आवृत कर दिया जाता है। उन्हें यन्त्रों (कोल्हू) से पीड़ित किया जाता है और घुटनों के बल घसीटा जाता है। उनकी पीठे, सिर एवं गर्दन तोड़ दी जाती हैं, देखने में वे भयावह लगते हैं, उनके कण्ठ इस प्रकार फाड़ दिये जाते हैं कि मानो वे गुफा हों और पीड़ा सहने में असमर्थ हो जाते हैं। पापी इस प्रकार सताय जाते हैं और आगे चलकर वे भाँति-भाँति के पशुओं के शरीरों के रूप में (जन्म लेकर) भयानक पीड़ाएँ सहते हैं।" पुराणों ने बहुधा उल्लेख किया है कि नरक पृथिवी के नीचे होता है। गरुड़ एवं ब्रह्माण्ड के मत से रौरव आदि नरक पृथिवी के नीचे कहे गये हैं। और देखिए विष्णुपुराण (२।६।१) । भागवतपुराण में आया है कि नरक पृथिवी के नीचे, तीनों लोकों के दक्षिण जल के ऊपर है, उसका कोई आश्रय नहीं है (लटका हुआ है) और उसमें 'अग्निष्वात्त' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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