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________________ स्वर्ग और नरक का निरूपण ११०३ बारी-बारी से चक्कर काटते रहते हैं और अन्य पापी बहुत वर्षों तक रहते हैं। यम (मदनपारिजात, पृ० ६९६) का कथन है कि महापातकी एक युग तक मुंह नीचे किये नरक में पड़े रहते हैं। यम ने विशिष्ट पापियों के लिए विशिष्ट नरक-यातनाओं का उल्लेख किया है। बौद्धों ने अपने नरक-सिद्धान्त को ब्राह्मणधर्म-सम्बन्धी ग्रन्थों पर आधारित किया है। देखिए डा. बी. सी० लॉ कृत हेवेन एण्ड हेल इन बुद्धिस्ट पसंपेक्टिव (१९२५, पृ० १११-११३), जिसमें आठ महानिरयों एवं अन्य हलके नरकों की ओर संकेत किया है। आठ महानिरय ये हैं-सचीव, कालसुत्त, संघात, रोरुव, महारोरुव, तप, महातप एवं अवीचि। ये नाम मनु द्वारा उपस्थापित नामों के पालि रूपान्तर हैं। जैनों के ग्रन्थों में उल्लिखित नरकों एवं उनकी यातनाओं के विषय में देखिए उत्तराध्ययन-सूत्र (सेक्रेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्द ४५, पृ० ९३-९७) एवं सूत्रकृताङ्ग (११५, वही, पृ०२७९-२८६) । इसी प्रकार पारसी-भत की नरक-स्वर्ग-सम्बन्धी भावनाओं के लिए देखिए एस० एन० कंग कृत हेवेन एवं हेल एण्ड देयर लोकेशन इन जोराष्ट्रियनिज्म एण्ड इन दि वेदज' (१९३३)। बौद्ध पातिमोक्स नामक पश्चात्ताप-सम्बन्धी समाएँ किया करते थे और उन्होंने ९२ पाचित्तिय (प्रायश्चित्तीय) नियम प्रतिपादित किये थे (देखिए सैकेड बुक ऑव दि ईस्ट, जिल्द १३, पृ० १-६९ एवं पृ० ३२-५५) । महाभारत, पुराणों एवं अन्य ग्रन्थों में स्वर्ग का सुन्दर वर्णन उपस्थित किया गया है। ऋग्वेद एवं उपनिषदों (यथा-कठोपनिषद् १११२-१३ एवं १८ 'शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके') में स्वर्ग प्रकाशों का स्थल कहा गया है। ऋग्वेद (१०।१०७।२) में आया है कि जो प्रभूत दक्षिणा देते हैं वे स्वर्ग में (नक्षत्रों के समान) ऊंचा स्थान पाते हैं, जो अश्व दान करते हैं वे सूर्य के संग में जाते हैं और जो सोना देते हैं (दान करते हैं) वे अमर हो जाते हैं। इस कथन की प्रतिध्वनि वनपर्व (१८६।९) में है।" कौषीतकि उप० (१३) ने अग्नि, वायु, वरुण, आदित्य, इन्द्र, प्रजापति, ब्रह्म नामक देवलोकों की चर्चा का है। और देखिए बृहदारण्यकोपनिषद् (३६)। इस उपनिषद् (१।५।१६) ने मनुष्यलोक, पितृलोक एवं देवलोक की चर्चा करते हुए देवलोक को सर्वश्रेष्ठ कहा है। कौषी० उप० (१४) से प्रकट होता है कि भाग्यशाली निवासियों को देवलोक में दैवी अप्सराएँ, मालाएं, नेत्ररंजन, सुगन्धित चूर्ण, परिधान प्राप्त होते हैं। शंकर (वेदान्तसूत्र ४।३।४) ने कहा है कि लोक का अर्थ है 'वह स्थान जहाँ अपने कर्मों का फलानन्द प्राप्त होता है (भोगायतन) और हिरण्यगर्भ ब्रह्मलोक का अध्यक्ष है (वेदान्तसूत्र ४।३।१०)। वनपर्व (५४।१७-१९) में स्वर्ग को उन वीरों का भी स्थान माना है जो रण में वीरगति प्राप्त करते हैं। वनपर्व (१८६।६-७) में स्वर्गानन्द का वर्णन है; वहाँ पंकहीन एवं सुवर्णकमल-पुष्पयुक्त जलाशय हैं, जिनके तट पर गुणवान लोग रहते हैं, अप्सराएं जिनका सम्मान करती हैं एवं उनके शरीरों में सुगन्धित कान्तिवर्धक अंगराग लगाती हैं, वे आभूषण धारण करते हैं और दीप्तिमान् स्वर्णिम रंगों वाले होते हैं। ये सुविधाएँ ब्रह्मपुराण (२२५।५-६) में वर्णित नन्दन वन में भी पायी जाती हैं। वनपर्व (२६१।२८-२९) ने स्वर्ग में जाने का एक दोष भी बताया है, यथा-वहाँ सत्कर्मों का फल मात्र मिलता है, नये गुण संगृहीत नहीं होते, व्यक्ति संगृहीत गुणों के मूलधन का ही व्यय करता है, जब वह समाप्त हो जाता है तो वह नीचे चला आता है, किन्तु वह मनुष्य-योनि में ही उत्पन्न होता है और आनन्द का उपभोग करता है। अनुशासन० (२३३८४-१०२), ब्रह्मपुराण (२२४।९-१४, १८-२५ एवं ३०-३७) ने उन कर्मों का १८. कल्प, मन्वन्तर एवं युग के लिए देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय ३४॥ १९. परं लोकं गोप्रदास्वाप्नुवन्ति दत्त्वानडुहं सूर्यलोकं व्रजन्ति। वासो दत्त्वा चान्द्रमसंतु लोकं दत्त्वा हिरण्यममरत्वमेति ॥ वन० (१८९९)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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