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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास इधर-उधर चलाया जाता है), शाल्मलि (जहाँ सेमल की रूई के समान शूलों से व्यक्ति छेदा जाता है), नदी (जहाँ प्राणी वैतरणी नदी में बहाया जाता है), असिपत्रवन (जहाँ पर व्यक्ति तलवार की धारों वाले वन से काटा जाता है), , लोहदारक (जो अंगों को लोहे से काटता है ) । मनु (१२/७५-७६ ) में तामिस्र, असिपत्रवन एवं कुम्भीपाक नरकों का एवं कालसूत्र ( ३।२४९ ) का फिर से उल्लेख हुआ है । और देखिए कुल्लूक ( मन ४।८०-९०), प्राय० वि० ( पृ० १६) एवं दीपकलिका ( याज्ञ० ३।२२२ - २२४) । अग्नि० (२०३ एवं ३७१ ) में नरकों की संख्या १४४ है । ब्रह्मपुराण के २२वें अध्याय में २५ नरकों का उल्लेख है और प्रत्येक के भागी पापियों की भी चर्चा की गयी है।" ब्रह्मवैवर्त (प्रकृतिखण्ड, अध्याय २९ एवं ३३ ) ने ८६ नरककुण्डों, नारदपुराण (पूर्वार्ध, १५1१-२० ) ने नरकों एवं यातनाओं, पद्मपुराण (उत्तर, अध्याय २२७) ने १४० नरकों एवं (अध्याय ४८) कुछ अन्य नरकों, भविष्यपुराण (ब्रह्मपर्व, १९२।११-२७) ने नरक यातनाओं एवं ( उत्तरपर्व, अध्याय ५-६ ) पापों एवं नरकों का उल्लेख किया है । भागवतपुराण (५।२६।६ ) ने २८ नरकों एवं अन्यों ने २१ नरकों की चर्चा की है।" और देखिए विष्णुपुराण (५१६/२-५), स्कन्दपुराण (१, अध्याय ३९ एवं ६ । २२६ - २२७ ), मार्कण्डेयपुराण (अध्याय १२, १४/३९-९४) । महाभारत में भी नरकों एवं यातनाओं का उल्लेख है । शान्तिपर्व ( ३२१।३२ ) ने वैतरणी एवं असिपत्रवन का, अनुशासनपर्व (२३।६०-८२) ने नरक में ले जानेवाले कर्मों का उल्लेख किया है। और देखिए अनुशासन ( १४५ ।१०-१३), स्वर्गारोहणपर्व ( २।१६-२६ ) । वृद्धहारीतस्मृति (९।१६७-१७१) ने मन द्वारा प्रस्तुत अधिकांश २१ नरकों के नाम दिये हैं। इन ग्रन्थों में नरकों के बढ़ाने की प्रवृत्ति इतनी अधिक हो गयी कि ब्रह्मपुराण, विष्णुधर्मोत्तर०, गरुड़पुराण आदि ने घोषित किया है कि नरकों की संख्या सहस्रों, लाखों एवं करोड़ों है । ११०२ विष्णुधर्मसूत्र ( ४६ । २३ - २९ ) ने व्यवस्था दी है कि अतिपातक, अनुपातक एवं संकरीकरण के अपराधी यदि प्रायश्चित्त नहीं करते हैं, तो वे क्रम से एक कल्प, एक मन्वन्तर, चार युगों एवं एक सहस्र वर्षों तक २१नरकों में १५. याज्ञ० एवं विष्णु ने महावीचि के स्थान पर अवीचि पढ़ा है। याज्ञ० ने सम्प्रतापन के स्थान पर सम्प्रपातन पढ़ा है ('सम्प्रपतन' का अर्थ है 'गड्ढे में फेंकना') और अलग से कुम्भीपाक (घड़े में रखकर गर्म करना) जोड़ दिया है। मुद्रित मनुस्मृति में 'प्रतिमूर्तिकम्' आया है, जो किसी पाण्डुलिपि का अशुद्ध पाठ है। कुछ पाण्डुलिपियों में 'लोहचारक' आया है, जिसका अर्थ 'उत्तप्त लोह पर चलाना' या 'लोह शृंखलाओं से बाँधना' हो सकता है (प्राय० वि०, पृ० १६ ) । इन सभी प्रकारों की व्याख्या प्राय० वि० ( पृ० १५-१६ ) तथा अन्य टीकाकारों ने को है । प्रायश्चित्तविवेक ( पृ० १६) द्वारा उद्धृत जमदग्नि के मत से वैतरणी यमलोक की वह नदी है जो दुर्गन्ध, रक्त आदि से भरी रहती है, जिसका जल उष्ण एवं बहुत तीक्ष्ण धार वाला होता है और जिसकी लहरियों पर हड्डियां एवं बाल होते हैं । शंख-लिखित ( म०पा०, पृ० ६९५ ) ने वैतरणी को तप्तोदका (उष्ण जल वाली ) कहा है। १६. नरकाणां च कुण्डानि सन्ति नानाविधानि च । नानापुराणभेदेन नामभेदानि तानि च ॥ षडशीतिश्च कुण्डानि संयमन्यां वसन्ति च । ब्रह्मवैवर्त, प्रकृतिखण्ड ( २९।४-६ ) । १७. खड्गशूलनिपातैश्च भिद्यन्ते पापकारिणः । नरकाणां सहस्रेषु लक्षकोटिशतेषु च । स्वकर्मोपार्जितैर्दोषः पौड्यन्ते यमककरः ॥ ब्रह्मपुराण ( २१५।८२-८३ ) ; अष्टाविंशतिकोट्यः स्युर्धाराणि नरकाणि वै । महापातferrers सर्वे स्युर्नरकान्धिषु ।। आचन्द्रतारकं यावत्पीड्यन्ते विविधैर्वधेः । अतिपातकिनश्चान्ये निरयार्णवकोटिषु ।। विष्णुधर्मोत्तर ० ( स्मृतिमुक्ताफल, प्रायश्चित्त, पृ० ८५९); गरुड़पुराण ( प्रेतखण्ड, ३।३ ) - नरकाणां सहस्राणि वर्तन्ते ह्यरुणानुज । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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