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________________ कर्मफल और नरकों का निरूपण ११०१ अपने सत् कर्मों का फल उस लोक में नहीं पाता। अन्य लोगों का मत है कि नरक जातिकर्म-योग्यता की कमी एवं सत् कर्मों के फल की हानि का द्योतक है। गौतम का अपना मत है कि नरक वह विशिष्ट स्थान है जहाँ व्यक्ति केवल कष्ट एवं दुःख पाता रहता है। गौतम का दृढ मत है कि कतिपय वर्णों एवं आश्रमों के लोग अपने-अपने धर्मों (कर्मों) की निष्ठता के कारण इस जीवन के उपरान्त कर्म-फल भोगते हैं और सम्पूर्ण कर्मों के अवशिष्ट फलों के कारण विशिष्ट देश, जाति, कुल, रूप, आयु, श्रुत (विद्या), वृत्त (आचरण), वित्त (घन), सुख, मेधा (बुद्धि) के अनुसार शरीर धारण कर जन्म लेते हैं, और जो लोग विपरीत कर्म करते हैं वे भाँति-भाँति के जन्म ग्रहण करते हैं और नाश को प्राप्त होते हैं।" आप० ध० सू० (१।४।१२।१२) का कथन है कि यदि व्यक्ति इन्द्रियोपभोग के लिए ही कर्मरत रहता है तो वह नरक के योग्य है। अन्य स्थान पर पुनः कथन है कि जब व्यक्ति धर्म का उल्लंघन करता है तो नरक ही उसका भाग्य है। निष्काम कर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। वेदान्तसूत्र (२।१११३) ने स्पष्ट किया है कि यमलोक (संयमन) में कर्मफल भोग कर लेने के उपरान्त दुष्कर्म करनेवाले इस मर्त्यलोक में आते हैं। वेदान्तसूत्र (३।१।१५) में नरक सात प्रकार के कहे गये हैं। पाणिनि (३।२।३८) ने महारौरव का विग्रह बताया है। पाणिनि (३।२१८८) की टीका काशिका में एक वैदिक श्लोक उद्धृत है जिसमें मातृहन्ता को सातवें नरक का भागी माना गया है। विष्णुपुराण (१।६।४१) ने सातों नरक लोकों के नाम दिये हैंतामित्र, अंवतामिस्र, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, कालसूत्र एवं अबीचि। अन्यत्र (२।६।२-५) २६ नाम दिये हुए हैं। शंख-लिखित (मदनपारिजात, प० ६९४६९५) ने कुम्भीपाक, रोरव, महारौरव आदि नरकों की यातनाओं का विशद वर्णन किया है। मनु (४।८८-९०), याज्ञ० (३।२२२-२२४), विष्णुधर्मसूत्र (४।३।२।२२), अग्नि० (३७१)२०-२०) एवं नारद (प्रकीर्णक, ४४) ने २१ नरकों का वर्णन उपस्थित किया है। सभी नाम एक-जैसे हैं, जो अन्तर है वह लिपिकों की लिखावट के विभिन्न रूपों के कारण है। मन के अनुसार २१ नाम ये हैं-तामिस्र (अन्धकार), अन्धतामिस्र (अंधा बनाने वाला अन्धकार), महारौरव, रौरव (प्रायश्चित्तविवेक, पृ० १५ के मत से जलते हुए तलों वाले मार्गों से आकीर्ण), कालसूत्र (कुम्हार के चाक के उस सूत्र के समान जिससे वह मिट्टी के कच्चे पात्रों को दो भागों में कर देता है), महानरक, संजीवन (जहाँ जिलाकर पुनः मार डाला जाता है), महावीचि (जहाँ उठती हई लहरियों में व्यक्ति को डुबा दिया जाता है), तपन (अग्नि के समान जलता हुआ). सम्प्रतापन (प्रायश्चित्तविवेक, प०१५ के मत से कुम्भीपाक), संघात (छोटे स्थान में बहुतों को रखना), काकोल (जहाँ व्यक्ति कौओं का शिकार बना दिया जाता है), कुड्मल (जहाँ व्यक्ति को इस प्रकार बांध दिया जाता है कि वह बंद कली की भाँति लगता है), पूतिमृत्तिक (जहाँ दुर्गन्धपूर्ण मिट्टी हो), लोहशंकु (जहाँ लोहे की कीलों से बेधा जाता है), ऋजीष (जहाँ गरम बालू बिछी रहती है), पन्था (जहाँ व्यक्ति लगातार १३. स्वर्गः सत्यवचन विपर्यये नरकः । गौ० (१३७)। द्विजातिकर्मभ्यो हानिः पतनन तथा परत्र चासिद्धिः। तमेके नरकम् । गौ० (२१॥४-६) । अन्तिम के विषय में हरदत्त का कथन है-'स्वमतं तु विशिष्टे देशे दुःखेकतानस्य वासो नरक इति ।' गौतम के मत के लिए और देखिए अपरार्क (पृ० १०४५) । वर्णाश्रमाः स्वस्वधर्मनिष्ठाः प्रेत्य कर्मफलमनुभूय ततः शेषेण विशिष्टदेशजातिकुलरूपायुःश्रुतवृत्तवित्तसुखमेधसो जन्म प्रतिपद्यन्ते। विष्वञ्चो विपरीता नश्यन्ति । गौ० (९।२९-३०), और देखिए शांकरभाष्य (वेदान्तसूत्र ३।११८)। १४. तदनुवर्तमानो नरकाय राध्यति । आप० ५० सू० (१।४।१२।१२); हृष्टो दर्पति दृप्तो धर्ममतिकामति धर्मातिकमे खलु पुनर्नरकः। आप० ध० सू० (१।४।१३।४); ततः परमनन्त्यं फलं स्वय॑शब्दं श्रूयते। आप० ५० सू० (२।९।२३।१२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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