________________
स्वर्ग और नरक की धारणा एवं पुनर्जन्म
१०९९
मृत्यु के उपरान्त आत्मा की अवस्थिति की चर्चा दृढतापूर्वक की गयी है। उपर्युक्त वचनों से यह स्पष्ट होता है कि पवित्र लोगों एवं वीरगति प्राप्त हुए लोगों को स्वर्ग प्राप्त होता था और उन्हें इस लोक की सुन्दर खाद्य वस्तुएँ, यथा घृत, मधु आदि वहाँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते थे । मेकडोनेल का यह कथन कि "लौकिक वस्तुओं एवं आनन्दों से पूर्ण कल्पना का स्वर्ग पुरोहितों के लिए था न कि योद्धाओं के लिए", ठीक नहीं है (देखिए वेदिक माइथॉलॉजी, पृ० १६८, ऋ० १०।१५४।३) । इस बात के लिए कि वैदिक काल में योद्धा लोग पुरोहितों के समान ही विश्वास नहीं रखते थे, कोई प्रमाण नहीं है । पश्चात्कालीन ग्रन्थों, यथा भगवद्गीता (२।३७ ), रघुवंश ( ७।५१ ) में आया है कि युद्ध में वीरगति प्राप्त लोग स्वर्ग में जाते हैं और सुन्दर स्त्रियों के संसर्ग की सुविधा पाते हैं। ऐसी धारणाएँ सभी प्राचीन धर्मों में पायी गयी हैं । उन दिनों इस पृथिवी को समतल कहा गया एवं इसके ऊपर देवी वस्तुओं से युक्त आकाश की स्थिति मानी गयी थी । बृहदारण्यकोपनिषद् (४।३।३३) एवं तै० उप० (२२८) में कहा गया है कि देवों का लोक मयों के लोक से सैकड़ों गुना आनन्दमय है । कठोपनिषद् (१।१२ ) में आया है स्वयं यम ने कहा है कि स्वर्ग में न भय है, न जरा (वृद्धावस्था) है, वहाँ के निवासी भूख प्यास एवं चिन्ता से विकल नहीं होते, प्रत्युत आनन्दों के बीच विचरण किया करते हैं । " वेदान्तसूत्र ( १।२।२८ ) में शंकराचार्य ने कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् ( ३९ ) का उद्धरण देते हुए कहा है कि पापियों का निवासस्थल इस लोक के नीचे या पृथिवी है । " छान्दोग्योपनिषद् ( ५1१०1७) में आया हैजिनके आचरण रमणीय हैं, वे शीघ्र ही अच्छा जन्म - ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य का जन्म -- पायेंगे। जिनके आचरण अशोभन हैं, वे शीघ्र ही कपूय ( बुरा) जन्म-कुत्ते, सूकर या चाण्डाल का जन्म – पायेंगे ।
हमारे समक्ष दो सिद्धांतों का जटिल सम्मिश्रण उपस्थित हो जाता है । वैदिक काल का मौलिक सिद्धान्त था स्वर्ग एवं नरक, जो अधिकांश में सभी धर्मों में पाया जाता है। आगे चलकर जब कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त भारत में सर्वमान्य हो गया तो स्वर्ग-नरक सम्बन्धी सिद्धान्त परिष्कृत हुआ और कहा गया कि कभी स्वर्ग के आनन्द एवं नरक की यातनाएँ समाप्त हो सकती हैं और पापी आगे के जन्म में पशु या वृक्ष या मानव के रूप में रोगग्रस्त एवं दोष-पूर्ण शरीरांगों के साथ पुनः जन्म लेंगे ।
यों तो (मृत्युपरान्त) आत्मा के विषय में हम अन्त्येष्टि एवं श्राद्ध के परिच्छेद में वर्णन करेंगे। किन्तु यहाँ जब हम स्वर्ग एवं नरक की चर्चा कर रहे हैं तो यम के विषय में कुछ कहना अत्यावश्यक है। ऋग्वेद (१०।४८।१) में यम
स्वत ( विवस्त्रान् या सूर्य का पुत्र) कहा गया है। यह भारत पारसीय देवता है। ऋग्वेद (१०।१४ ) में यम की प्रशस्ति है, उसे राजा कहा गया है और वह लोगों को एकत्र करनेवाला कहा गया है ( १० | १४ | १ ) ; उसने सर्वप्रथम स्वर्ग के मार्ग का अनुसरण किया है, जहाँ मानवों के पूर्व- पुरुष भी गये (१०।१४। २ 'यमो नो गातु प्रथमो विवेद... यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुः ' ) । इस लोक से जाते हुए आत्मा को कहा गया है कि जब वह पूर्वपुरुषों के मार्ग से जायगा तो वह यम एवं वरुण नामक दो राजाओं को देखेगा। ऋग्वेद (१०।१४।१३-१५) में पुरोहितों से कहा गया है कि वे यम के लिए सोम का रस निकालें और यह भी कहा गया है कि यज्ञ यम के पास पहुँचता है और इसके लिए अग्नि ही दूत होता है। ऋग्वेद
१०. तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात् । स एको मानुष आनन्दः । ते ये शतं मानुषा आनन्दाः स एको मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दः ॥ .. . ते ये शतं देवानामानन्दाः स एक इन्द्रस्यानन्दः । तै० उप० (२२८ ) । स्वर्गे लोके न भयं किञ्चनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति । उभे तीर्त्वाशनायापिपासे शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ कठोप० (१११२) ।
११. एष एवासाधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्योऽधो निनीषते । कौ० ब्रा० उप० (३1९ ) ।
६६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org