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धर्मशास्त्र का इतिहास एवं वरुण जैसे देव अमरता देने के लिए प्रार्थित हुए हैं (ऋ० १११२५।५; ५।६३१२; १०.१०७।२)। स्वर्ग का जीवन आनन्दों एवं प्रकाशों से परिपूर्ण है और वहां के लोगों की सभी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं (ऋ० ९।११३।१०-११)। ऋ० (९।११३।८) में कवि कहता है-'मुझे (स्वर्ग में) अमर कर दो, जहाँ राजा वैवस्वत रहते हैं, जहां सूर्य बन्दी है (कभी नहीं अस्त होता) और जहाँ दैवी जल बहते हैं जो व्यक्ति यज्ञ नहीं करता, पूजा नहीं करता, इन्द्र के अतिरिक्त अन्य लोगों के आदेशों का पालन करता है, वह स्वर्ग से नीचे फेंक दिया जाता है (ऋ० ८७०।११)। एक ऋषि हर्षातिरेक में कहते हैं-'हमने सोम का पान किया है, हम अमर हो गये हैं, हम प्रकाश (स्वर्ग) को प्राप्त हो गये हैं
और हमने देवों को जान लिया है, शत्रु या हानि पहुंचाने वाले हमारा क्या कर लेंगे जो अभी तक मरणशील रहे हैं ?" पवित्र होकर मृत लोग स्वर्ग में अपने इष्टापूर्त (यज्ञों एवं दानपुण्य-कर्मों से उत्पन्न धर्म या गुण) एवं अपने पूर्वजों से मिल जाते हैं और देदीप्यमान शरीर से युक्त हो जाते हैं (ऋ० १०११४१८)। जो तप करते हैं या जो ऐसे यज्ञों का सम्पादन करते हैं, जिनमें दक्षिणा सहस्रों गौओं तक पहुँच जाती है, वे स्वर्ग पहुँचते हैं (ऋ० १०।१५४११-३) और वहाँ उनके लिए सोम, घी एवं मधु का प्रवाह होता है। स्वर्ग में यम का निवास रहता है और वहाँ बाँसुरियों एवं गीतों का नाद होता रहता है (ऋ० १०११३५।७) । अथर्ववेद अपेक्षाकृत अधिक लौकिक है और उसमें स्वर्ग के विषय में अधिक सूचनाएँ भी हैं। ऐसा कहा गया है कि दाता स्वर्ग में जाता है जहाँ अबल लोगों को सबल लोगों के लिए शुल्क नहीं देना पड़ता (अथर्ववेद ३।२९।३)। अथर्ववेद (३॥३४।२, ५-६) में कहा गया है कि स्वर्गिक लोक में वहाँ के निवासियों के लिए बहुत-सी स्त्रियाँ होती हैं, उन्हें भोज्य पौधे एवं पुष्प प्राप्त होते हैं, वहाँ घी के ह्रद (तालाब), दुग्ध एवं मधु की नदियाँ होती हैं, सुरा जल की भाँति बहती रहती हैं और निवासियों के चतुर्दिक कमलों की पुष्करिणियाँ होती हैं। स्वर्ग में गुणवान् लोग प्रकाशानन्द पाते हैं और उनके शरीर रोगमुक्त रहते हैं। अथर्ववेद (६।१२०१३ आदि) में माता-पिता, पत्नी, पुत्रों (१२।३.१७) से मिलने की इच्छा अभिव्यक्त की गयी है। तै० सं० में स्वर्ग के विषय में प्रभूत संकेत हैं, हम केवल एक की चर्चा यहाँ कर रहे हैं--ऐसा आया है कि जो ज्योतिष्टोम यज्ञ में अदाभ्य पात्र की आहुति करता है वह इस लोक से जीता ही स्वर्ग चला जाता है। तै० ब्रा० (१।५।२।५-६) में आया है जो यज्ञ करते हैं वे आकाश में देदीप्यमान नक्षत्र हो जाते हैं । शत० ब्रा० (११।११८१६) का कथन है—यह यजमान, जो अपने उद्धार या मोक्ष के लिए यज्ञ करता है, वह दूसरे लोक (स्वर्ग) में इस पूर्ण शरीर के साथ ही जन्म लेता है।' तै० ब्रा० (३।१०।११) में
६. अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् । किं नूनमस्मान् कृणवदरातिः किमु धूतिरमृतं मर्त्यस्य ॥ ऋ० (८१४८३३)।
७. नैषां शिश्नं प्रदहति जातवेदाः स्वर्गे लोके बहु स्त्रणमेषाम् । घृतलदा मधुकूलाः सुरोक्काः क्षीरेण पूर्णा उदकेन दना ॥ एतास्त्वा धारा उपयन्तु सर्वाः स्वर्ग लोके मधुमत्पिन्वमानाः। उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः॥ अथर्व० (४॥३४२ एवं ६)। यत्रा सुहार्दः सुकृतो मदन्ति विहाय रोगं तन्वः स्वायाः। अश्लोणा अंगैरहताः स्वर्ग तत्र पश्येम पितरौ च पुत्रान् ॥अथर्व० (६।१२०॥३); स्वर्ग लोकमभि नो नयासि सं जायया सह पुत्रः स्याम ॥ अथर्व० (१२।३।१७)।
८. कि तद्यने यजमानः कुरुते येन जीवन्सुवर्ग लोकमेतीति जीवग्रहो वा एष यवदाम्योऽनभिषतस्य गृह्णाति जीवन्तमेवैनं सुवर्ग लोकं गमयति ॥ तै० सं० (६६।९।२)।
९. 'यो वा इह यजते अमुं स लोकं नक्षते...देवगहा वै नक्षत्राणि ।' त० वा० (११५५२५-६) । स ह सर्वतनूरेव यजमानोऽमुष्मिल्लोके सम्भवति य एवं विद्वान् निष्कृत्या यजते । शत० मा० (११३११८०६)।
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