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________________ स्वर्ग और नरक की धारणा १०९७ उपर्युक्त कथनों से प्रकट होता है कि प्रायश्चित्तों या राजदण्ड से विहीन होने पर व्यक्ति नरक में पड़ता है। दुष्कर्म फलों के अवशिष्ट रहने पर नीच योनियों में गिर पड़ता है और मनुष्य-योनि में आने पर भी रोगग्रस्त या विकलांग रहता है। अब हम संक्षेप में नरक एवं स्वर्ग को धारणा का विवेचन उपस्थित करेंगे । ऋग्वेद में नरक के विषय में स्पष्ट संकेत नहीं मिलता । कुछ ऋचाएँ अवलोकनीय हैं। यथा-ऋग्वेद (२।२९।६, ३।५।५, ७१०४।३, ७।१०४।११, १०।१५२१४, ९।७३८) जहाँ कम से ऐसी बातें आयी हैं-'गड्ढे से मेरी रक्षा कीजिए, इसमें गिरने से बचाइए'; 'वे लोग जो ऋत एवं सत्य से विहीन हैं, पापी होने के कारण अपने लिए गहरा स्थान बनाते हैं'; 'हे इन्द्र एवं सोम, दुष्टों को मारकर अलग अन्धकार में डाल दो !' 'जो कोई मुझे रात या दिन में हानि पहुंचाने की इच्छा करता है उसे शरीर एवं सन्तानों से वंचित कर तीनों पृथिवियों के नीचे डाल दो'; 'जो लोग सोम के आदेशों का पालन न करें और जिनसे सोम घणा करे, कुदष्टि से देखे उन्हें गड्ढे में फेंक दो।' इन वैदिक वचनों से प्रकट होता है कि ऋग्वेदीय ऋषिगण को कुछ ऐसा विश्वास था कि पृथिवी के नीचे कोई अन्ध गर्त है जहाँ देवों द्वारा दुष्ट को फेंक दिया जाता था। किन्तु ऋग्वेद में नरक की यातना की कोई चर्चा नहीं है। अथर्ववेद में नरक के विषय में स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है। अथर्ववेद (२।१४।३) के अनसार (पृथिवी के) नीचे ऐंद्रजालिक (मायावी) एवं राक्षस निवास करते हैं। अथर्ववेद (५।३०।११) ने एक व्यक्ति को मृत्यु से, गम्भीर काले अंधकार से निकल आने को कहा है। अथर्ववेद (५।१९।३) में आया है कि जो व्यक्ति किसी ब्राह्मण के सम्मुख थूकता या जो उस पर धन-कर लगाता है, वह रक्त की नदी के मध्य में बालों को दाँत से काटता रहता है। अथर्ववेद (१२।४।३६) में 'नरक-लोक' का उल्लेख है। वाजसनेयी संहिता (३०।५) में वीरहा (जो अग्निहोत्र को त्याग देता है) को नरक में जाने को कहा है। 'वीरहा' का अर्थ वीर को मारनेवाला' भी हो सकता है, किन्तु यहाँ इसका अर्थ यह नहीं है। शतपथ ब्राह्मण (११।६।१।४) में हमें नरक-यातना की ओर संकेत मिलता है, यथा--अपराधों के कारण लोग दूसरे के शरीर के अंग काट डालते हैं। ते. आ० (१११९) में चार नरकों का उल्लेख है, यथा--विसी, अविसी, विषादी एवं अविषादी जो क्रम से दक्षि पूर्व, दक्षिण-पश्चिम, उत्तर-पश्चिम एवं उत्तर-पूर्व में हैं। कठोपनिषद् (२।५।६) के समय में ऐसा विश्वास था कि जो परमतत्त्व को नहीं जानते और केवल भौतिक जगत के अस्तित्व में ही विश्वास करते हैं, वे बार-बार जन्म लेते हैं और यम के हाथ में पड़ जाते हैं। इस उपनिषद् (५।७) में पुनः आया है कि कुछ लोग मत्यूपरान्त अपने कर्मों एवं ज्ञान से शरीर धारण करते हैं और कुछ लोग स्थावर (पेड़ आदि) हो जाते हैं। किंतु इस उपनिषद् में नरक-यातनाओं का उल्लेख नहीं मिलता। सम्भवतः महाकाव्यों एवं पुराणों के समय की धारणाएँ उन दिनों प्रचलित नहीं थीं। कठोपनिषद् के आरम्भिक शब्द (११२१ देवैरत्रापि विचिकित्सितम्) यह बताते हैं कि उस समय में भी मरनेवालों के भाग्य के विषय में कई धारणाएँ थीं। कौषीतकि ब्राह्मण (११३) ने घोषित किया है कि जिस प्रकार इस विश्व में लोग पशुओं का मांस खाते हैं, उसी प्रकार दूसरे लोक में पशु उन्हें खाते हैं। स्वर्ग के विषय में धारणाएँ अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट हैं। कुछ ऋचाओं में तीन स्वर्गों का उल्लेख है, यथा ऋग्वेद (११३५।६, ८।५।८, ८१४११९, ९।११३।९) । दयालु दाता या पूजक स्वर्ग में जाता है, देवों से मिलता है ; मित्र ५. 'स्वर्ग' एवं 'नरक' के विषय में देखिए ए० ए० मैकडोनेल कृत 'वेदिक माइथॉलॉजी', पृ० १६७१७०; प्रो० कोथकृत 'रेलिजिन एण्ड फिलासफी आव दो वेद एण्ड उपनिषद्स', पृ० ४०५-४१०; जर्नल आव अमेरिकन ओरिएण्टल सोसाइटी, जिल्द १३, पृ० ५३, जिल्द ६१, पृ०७६-८०, जिल्द ६२, पृ० १५०-१५६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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