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अध्याय ६
प्रायश्चित्त न करने के परिणाम
स्मृतियों, पुराणों एवं निबन्धों ने घोषित किया है कि प्रायश्चित्त न करने से पापी को दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं। याज्ञ० (३।२२१) का कथन है कि पापकृत्य के फलस्वरूप सम्यक् प्रायश्चित्त न करने से परम भयावह एवं कष्टकारक नरकयातना सहनी पड़ती है। मनु (१२।५४) एवं याज्ञ० (३।२०६) ने प्रतिपादित किया है कि जो व्यक्ति गम्भीर एवं अन्य पातकों के लिए सम्यक् प्रायश्चित्त नहीं करते वे भाँति-भांति की नरक-यातनाएँ भुगतने के उपरान्त पुनः इस लोक में आते हैं और निम्न कोटि के पशुओं, कीट-पतंगों, लता-गुल्मों के रूप में प्रकट होते हैं । मनु (११५३) ने आदेश दिया है कि पापमुक्ति के लिए व्यक्ति को प्रायश्चित्त करना चाहिए। क्योंकि वे लोग, जो (प्रायश्चित्त द्वारा) पापों को नष्ट नहीं करते, पुनः जन्म ग्रहण करते हैं और अशुभ चिह्नों या लक्षणों (मद्दे नख, काले दात आदि) से युक्त हो जाते हैं। उन्होंने पुनः (१११४८) कहा है कि दुष्टात्मा व्यक्ति इस जीवन एवं पूर्व जीवन में किये गये दुष्कर्मों के कारण विकलांग होते हैं और उनके अंग-प्रत्यंग भद्दी आकृतियों वाले हो जाते हैं। विष्णुपुराण ने याज्ञ० (३।२२१) की ही बात कही है। विष्णुधर्मोत्तर ने घोषित किया है कि वे पापी जो प्रायश्चित्त नहीं करते और न राजा द्वारा दण्डित होते हैं, नरक में गिर पड़ते हैं, तिर्यग्योनि में जन्म-ग्रहण करते हैं और मनुष्ययोनि पाने पर भी शरीर-दोषों से युक्त होते हैं। विष्णुधर्मसूत्र ने व्यवस्था दी है कि पापी लोग नारकीय जीवन के दुःखों की अनुभूति करने के उपरान्त तिर्यक् योनि में पड़ते हैं, और जो अतिपातक, महापातक, अनुपातक, उपपातक, जातिभ्रंशकरण कर्म, संकरीकरण, अपात्रीकरण, मलिनीकरण एवं प्रकीर्ण पापकृत्य करते हैं, वे क्रम से स्थावर योनि (वनस्पति), कृमि-योनि, पक्षि-योनि, जलजयोनि, जलचरयोनि, मृगयोनि, पशु-योनि, अस्पृश्य-योनि एवं हिस्र-योनि में पड़ जाते हैं।' विष्णुधर्मसूत्र (४५।१) ने पुनः कहा है कि नरक की यातनाओं को मुगत लेने एवं तिर्यकों की योनि में जन्म लेने के उपरान्त जब पापी मनुष्य-योनि में आते हैं तो पापों को बतलाने वाले लक्षणों से युक्त ही रहते हैं।'
१. पापकृद्याति नरकं प्रायश्चित्तपराङ्मुखः । विष्णुपुराण (४।५।२१; परा० मा० २, भाग २, पृ० २०९)।
२. प्रायश्चित्तविहीना ये राजभिश्चाप्यवासिताः। नरकं प्रतिपद्यन्ते तिर्यग्योनि तथैव च ॥ मानुष्यमपि चासाद्य भवन्तीह तथांकिताः। विष्णुधर्मोत्तर० (२।७३।४-५); परा० मा० २, भाग २, पृ० २१० एवं प्राय०वि० (पृ० १२०)।
३. अथ पापात्मनां नरकेष्वनुभूतदुःखाना तिर्यग्योनयो भवन्ति । अतिपातकिनां पर्यायेण सर्वाः स्थावरयोनयः । महापातकिनां च कृमियोनयः । अनुपातकिनां पक्षियोनयः। उपपातकिनां जलजयोनयः । कृतजातिभ्रंशकराणां जलचरयोनयः। कृतसंकरीकरणकर्मणां मृगयोनयः। कृतापात्रीकरणकर्मणां पशुयोनयः । कृतमलिनीकरणकर्मणां मनुष्येध्वस्पृश्ययोनयः। प्रकीर्णेषु प्रकीर्णा हिंस्राः क्रव्यादा भवन्ति । विष्णुधर्मसूत्र (४४।१-१०)।
४. अथ नरकाभिभूतदुःखाना तिर्यक्त्वमुत्तीर्णानां मनुष्येषु लक्षणानि भवन्ति। वि० ध० सू० (४५।१)।
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