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________________ १०९४ धर्मशास्त्र का इतिहास लघु-कृच्छ ही है। इसमें एक दिन केवल दिन में, एक दिन केवल रात में, एक दिन बिना मांगे केवल एक बार भोजन किया जाता है और एक दिन पूर्ण उपवास किया जाता है। और देखिए वसिष्ठ (२३।४३, हरदत्त, गौतम २६५), बौ० घ० सू० (२।११९२ ) एवं याज्ञ० (३।३१८)। शिशु-चान्द्रायण-मनु (१११२१९), बौ० घ० सू० (४।५।१९), अग्नि० (१७१।५) के मत से जब कोई ब्राह्मण एक मास तक प्रातः केवल चार ग्रास, सायं केवल चार ग्रास खाता है, तो उसे शिशु-चान्द्रायण (बच्चों एवं बड़ों आदि के लिए) कहा जाता है। शीतकृच्छ-यह तप्तकृच्छ का उलटा है, क्योंकि इसमें सभी पदार्थ शीतल रूप में खाये जाते हैं। देखिए विष्णु (४६।१२), अग्नि० (१७११७), मिता० (याज्ञ० ३।३१७)। विष्णु (प्राय० सार, पृ० १८५ एवं मदनपारि०, पृ० ७३६ द्वारा उद्धृत) के मत से यह १० दिनों का (१२ दिनों का नहीं, जैसा मिता० का कथन है) होता है, जिसमें क्रम से तीन-तीन दिन शीतल जल, शीतल दूध एवं शीतल घृत खाया जाता है और एक दिन पूर्ण उपवास किया जाता है। श्रीकृच्छ--विष्णु (४६।१६), अग्नि० (१७१।१२) एवं मिता० (याज्ञ० ३१३१६) के अनुसार इसमें एक मास तक बिल्वफल या कमल के बीज (पद्माक्ष, तालमखाना) खाये जाते हैं। देखिए मदनपारिजात (पृ० ७३७)। सान्तपन-देखिए ऊपर महासान्तपन एवं अतिसान्तपन । यह पाँच प्रकार का है, यथा-प्रथम दो दिनों का, दूसरा ७ दिनों का, तीसरा ११ दिनों का (अतिसान्तपन), चौथा १५, दिनों का तथा पाँचवाँ २१ दिनों का। सुर-चान्द्रायण-इसमें एक मास तक कुल मिलाकर बिना लगातार घटती-बढ़ती किये २४० ग्रास खाये जाते हैं। याज्ञ० (३।३२४) ने इसे चान्द्रायण का एक प्रकार माना है। विष्णुधर्मसूत्र (४७।९) ने इसे सामान्य चान्द्रायण की संज्ञा दी है। सुवर्णकृच्छ-देखिए हेमाद्रि (प्रायश्चित्त, पृ० ९६९-९७२), जहाँ देवल एवं मार्कण्डेयपुराण का उद्धरण दिया हुआ है। इसमें एक वराह या इसका आधा या चौथाई सोना दान किया जाता है। एक वराह नौ रूपकों तथा एक रूपक पाँच गुजाओं वाले एक माष के बराबर होता है। गुप्त रूप से ब्रह्महत्या पर या व्यभिचार (माता, बहिन, पुत्र-वधू आदि से) पर दस सहस्र या ४० सहस्र सुवर्ण-कृच्छ तथा अन्य हलके पापों के लिए कम संख्या वाले सुवर्णकृच्छ किये जाते हैं। ___ सोमायन-मदनपारिजात (पृ० ७४६, जिसमें हारीतधर्मसूत्र एवं मार्कण्डेय० का हवाला दिया हुआ है) एवं प्रायश्चित्तप्रकाश के मत से यह प्रायश्चित्त ३० दिनों का होता है, जिसमें क्रम से ७, ७, ७, ६ एवं ३ दिनों की पांच अवधियाँ होती हैं. जिनमें क्रम से गाय के चारों स्तनों, दो स्तनों, तीन स्तनों एवं एक स्तन का दुध ग्रहण किया जाता है और अन्तिम तीन दिनों तक पूर्ण उपवास किया जाता है। अन्य प्रकार २४ दिनों का होता है, जिसमें कृष्ण पक्ष की चतुर्थी से लेकर शक्ल पक्ष की द्वादशी तक की अवधि होती है और २४ दिन में तीन-तीन दिनों के आठ भाग कर दिये जाते हैं: प्रथम चार भागों में क्रम से चार स्तनों, तीन स्तनों, दो स्तनों एवं एक स्तन का दूध लिया जाता है और आगे के चार भागों में क्रम से एक स्तन, दो स्तनों, तीन स्तनों एवं चार स्तनों का दूध ग्रहण किया जाता है। देखिए प्रायश्चित्तेन्दुशेखर (पृ० १२)। २६. लघुकृच्छ्स्यै व धिशुकृच्छ इति नामान्तरम्। प्राय० मयूख (पृ० २१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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