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प्रायश्चित्तों (वतों) का परिचय
१०९३ चाहिए। व्यक्ति को खड़े होकर या बैठकर गोदुग्ध पीना चाहिए। यदि दुग्ध न मिले तो गाय के दघि या तक्र या गोमूत्र के साथ (दुग्ध, दही या तक्र के अभाव में) यावक पीना चाहिए। यह एक दिन का यज्ञकृच्छ नामक प्रायश्चित्त सभी पापों को हरने वाला होता है।
यतिचान्द्रायण-मनु (१२२१८ बौ० घ० सू० ४।५।२०), अग्नि० (१७१।४) एवं विष्णु (४७७) ने इस प्रायश्चित्त में एक मास तक केवल एक बार हविष्य अन्न के आठ ग्रास खाने तथा आत्मनियन्त्रण करने को कहा है ।२५
__ यतिसान्तपन-मिता० (याज्ञ० ३।३१४) के मत से जब पंचगव्य के पदार्थ कुशोदक के साथ मिलाकर लगातार तीन दिनों तक खाये जाते हैं तो यह यतिसान्तपन कहा जाता है। प्राय० प्रकरण (पृ० १२८) ने तीन दिनों के उपरान्त एक दिन उपवास भी जोड़ दिया है।
याम्य-विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अनुसार इसमें एक मास तक गोबर में से प्राप्त अन्न का सत्तू खाया जाता है।
यावक-शंख (१८०१०-११) के मत से एक मास तक गोबर से प्राप्त जौ को उबालकर खाते हर सभी पापों का नाश करने वाला यावक प्रायश्चित्त किया जाता है। परा० मा० (२, भाग २, प० १९२) एवं प्राय० प्रकाश ने देवल का उद्धरण देकर कहा है कि यह व्रत ७ दिन, १५ दिनों तक या एक मास तक किया जा सकता है, और इसमें प्राजापत्य की विधि अपनायी जा सकती है।
वज-अत्रि (१६४) ने कहा है कि जब घी में भुने हुए जौ गोमूत्र में मिलाकर खाये जाते हैं तो वज्र व्रत का पालन होता है। विश्वरूप (याज्ञ० ३।२४८) का कथन है कि अंगिरस्-स्मृति के मत से वज्र व्रत वह प्रायश्चित्त है जिसके द्वारा महापातकी तीन वर्षों में शुद्ध हो जाता है। और देखिए मिता० (याज्ञ० ३।२५४)।
वायव्यकृच्छ--अग्नि० (१७१।१४) एवं विष्णुधर्मोत्तर के मत से इसमें एक मास तक प्रति दिन केवल एक पसर (हथेली मर) भोजन किया जाता है।
वृद्धकृच्छ या वृद्धिकृच्छु-शंख-लिखित (प्राय० वि०, पृ० ५११) एवं यम (प्राय० सार, पृ० १७७) के मत से यह आठ दिनों तक किया जाता है, जिसमें दो दिनों तक केवल दिन में, दो दिनों तक केवल रात में, दो दिनों तक बिना मांगे भोजन किया जाता है और दो दिनों तक पूर्ण उपवास किया जाता है।
ज्यासकृच्छ—यह मैत्रकृच्छ्र के समान है। देखिए ऊपर। शिशुकृच्छ-इसे शंख-लिखित ने बालकृच्छ, देवल एवं प्रायश्चित्तमुक्तावली ने पादकृच्छ्र कहा है और यह
२५. अष्टौ ग्रासान् प्रतिदिवसं मासमश्नीयात् स यतिचान्द्रायणः। विष्णुधर्मसूत्र (४७७)। और देखिए प्राय० प्रकरण (पृ० १२१) जहाँ यह बृहद्विष्णु का वचन माना गया है। हविष्य भोजन के लिए देखिए कात्यायनहविष्येषु यवा मुख्यास्तवनु बीहयः स्मृताः । अभावे वीहियवयोर्दध्नापि पयसापि वा। तदभावे यवाग्वा वा जुहुयाबुदकेन वा॥ (स्मृतिचन्द्रिका, १, पृ० १६३)। गोभिलस्मृति (१३१३१) में यों आया है-हविष्येषु...स्मृताः। माषकोद्रवगौरादि सर्वालाभे विवर्जयेत् ॥ और देखिए गोभिलस्मृति (३३११४)। आश्व० गृह्यसूत्र (११९।६) में (होम्यं च मांसवर्जनम्) हरदत्त ने उद्धृत किया है-'पयो दधि यवागूश्च सपिरोदनतण्डुलाः। सोमो मांस तथा तैलमापश्चैव दशैव तु॥' इन बातों एवं हविष्यानों के लिए देखिए कृत्यरत्नाकर (पृ० ४००) एवं नित्याचारपद्धति (पृ. ३२०)।
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