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विज्ञानेश्वर
गौतम, चतुर्विंशतिमत, च्यवन, छागल (छागलेय), जमदग्नि, जातूकर्ण्य, जाबाल, (जाबालि), जैमिनि, दक्ष, दीर्घतमा, देवल, धौम्य, नारद, पराशर, पारस्कर, पितामह, पुलस्त्य, पैग्य, पैठीनसि, प्रचेता, बृहत्प्रचेता, वृद्धप्रचेता, प्रजापति, बाष्कल, बृहस्पति, वृद्धबृहस्पति, बौधायन, ब्रह्मगर्भ, ब्राह्मवध, भारद्वाज, भृगु, मनु, बृहन्मनु, वृद्धमनु, मरीचि, मार्कण्डेये, यम, बृहद्यम, याज्ञवल्क्य, बृहद्याज्ञवल्क्य, वृद्धयाज्ञवल्क्य, लिखित, लौगाक्षि, वसिष्ठ, बृहद्वसिष्ठ, वृद्धवसिष्ठ, विष्णु, बृहद्विष्णु, वृद्धविष्णु, वैयाघ्रपद, वैशम्पायन, व्याघ्र (व्याघ्रपाद), व्यास, बृहद्व्यास, शंख, शंखलिखित, शाण्डिल्य, शातातप, बृहज्छातातप, वृद्धशातातप, शुनःपुच्छ, शौनक, षट्त्रिंशन्मत, संवर्त, बृहत्संवर्त, सुमन्तु, हारीत, बृहद्धारीत, वृद्धहारीत। मिताक्षरा में निम्न ग्रन्थों की चर्चा हुई है-काठक, बृहदारण्यकोपनिषद्, गर्मोपनिषद्, जाबालोपनिषद्, निरुक्त, नाट्यशास्त्र के लेखक भरत, योगसूत्र, पाणिनि, सुश्रुत, स्कन्दपुराण, विष्णुपुराण, अमर, गुरु (प्रभाकर)। विज्ञानेश्वर ने अपने भाष्य के अन्त में अपने को विज्ञानयोगी कहा है और कालान्तर के लेखकों ने भी उन्हें वैसा ही कहा है। वे भारद्वाज गोत्र के पद्मनाभ भट्ट के सुपुत्र थे। वे स्वयं परमहंस उत्तम के शिष्य थे। जब उन्होंने मिताक्षरा का प्रणयन किया तब कल्याणनगरी में विक्रमार्क या विक्रमादित्यदेव शासन कर रहे थे।
मिताक्षरा के प्रणेता पूर्वमीमांसा-पद्धति के गूढ़ ज्ञाता थे, क्योंकि सम्पूर्ण पुस्तक में कहीं-न-कहीं पूर्वमीमांसा-न्याय का प्रयोग देखा जाता है। मिताक्षरा, जैसा कि इसके नाम से ज्ञात होता है, एक संक्षिप्त विवरण वाली रचना है। मिताक्षरा में विश्वरूप, मेधातिथि एवं धारेश्वर के नाम आते हैं, अतः वह १०५० के बाद की रचना है। देवण्णमट की स्मतिचन्द्रिका का प्रणयन १२०० ई० के लगभग हआ था। इसने मिताक्षरा-सिद्धान्तों की आलोचना की है। लक्ष्मीधर के कल्पतरु में विज्ञानेश्वर का नाम आया है। लक्ष्मीधर १२वीं शताब्दी के दूसरे चरण में हुए थे। अतः मिताक्षरा का प्रणयन ११२० ई० के पूर्व हुआ था। अन्य सूत्रों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मिताक्षरा का रचनाकाल १०७०-११०० ई० के बीच में कहीं है।
___ मिताक्षरा के भी भाष्य हुए हैं, जिनमें विश्वेश्वर, नन्द पण्डित एवं बालम्मट्ट के नाम अति प्रसिद्ध हैं। यहाँ पर स्थान-संकोच से विज्ञानेश्वर के सिद्धान्तों की व्याख्या नहीं की जा सकती। उन्होंने दाय को अप्रतिवन्ध एवं सप्रतिबन्ध नामक दो भागों में बाँटा है और बलपूर्वक कहा है कि पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र वसीयत पर जन्म से ही अधिकार पाते हैं। इस विषय में वे जीमूतवाहन के मतों के सर्वथा विरोध में हैं।
___ आफ्रेख्त ने अपनी सूची में अशौचदशक नामक ग्रन्थ के विषय में परस्पर-विरोधी बातें कही है। अशौचदशक के लेखक हैं हरिहर और इस पर विज्ञानेश्वर की एक टीका है। डेकन कालेज के संग्रह मे शौचदशक नामक एक हस्तलिखित प्रति है, जिसमें यह लिखा है कि विज्ञानेश्वर योगी ने शार्दूलविक्रीडित छः में अशौच पर एक रचना की, जिस पर हरिहर ने एक टीका लिखी। अब यह सिद्ध हो चुका है कि ह हर या तो विज्ञानेश्वर के शिष्य थे या उनके समकालीन थे। उनके किसी अन्य पर विज्ञानेश्वर ने नहीं, प्रत्युत उन्होंने स्वयं विज्ञानेश्वर के अशौचदशक या दशश्लोकी नामक ग्रन्थ पर टीका लिखी। त्रिंशत्-श्लोकी नामक ग्रन्थ के भाष्यकार विज्ञानेश्वर ही हैं, ऐसा कुछ लोग समझा करते थे, किन्तु ऐसी बात नहीं मानी जाती।
नारायणलिखित व्यवहारशिरोमणि नामक ग्रन्थ की एक हस्तलिपि मद्रास राजकीय पुस्तकालय में है। नारायण ने इसमें अपने को विज्ञानेश्वर का शिष्य घोषित किया है। यह ग्रन्थ 'बालबोधार्थम्' लिखा गया है। इसमें जनता के झगड़ों के निपटारे के विषय में राजा के कर्तव्यों, समय, सभा, प्राड्विवाक (न्यायाधीश), अभियोग और उसके दोष, आसेध (प्रतिवादी के ऊपर नियन्त्रण), व्यवहार-सम्बन्धी १८ पदों की सिद्धि के लिए उपाय, ऋणदान, निक्षेप, संभूय-समुत्थान, दत्ताप्रदानिक, अभ्युपेत्याशुश्रूषा, वेतनस्यानपाकर्म, अस्वामिविक्रय,
धर्म-१०
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