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धर्मशास्त्र का इतिहास
हरिनाथ एवं विवादचन्द्र में चर्चा होने के कारण बालरूप १२५० ई० के पूर्व ही हुए होंगे। यहाँ एक प्रमुख प्रश्न उठ सकता है; क्या बालक एवं बालरूप एक ही हैं ? सम्भवतः दोनों एक ही हैं। मिथिला के लेखकों ने, यथा मिसरु मिश्र, वाचस्पति एवं हरिनाथ ने बालरूप का ही वर्णन किया है, बालक का नहीं । बालक का नाम केवल बंगाली लेखकों के ग्रन्थों में ही आता है। एक स्थान पर जीमूतवाहन ने बालक के बालरूपत्व की खिल्ली उड़ायी है। इससे यह समझा जा सकता है कि दोनों एक ही हैं। बालक या बालरूप का समय ११०० ई० के लगभग माना जा सकता है।
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६९. योग्लोक
जितेन्द्रिय एवं बालक की भाँति योग्लोक का नाम भी केवल जीमूतवाहन एवं रघुनन्दन की कृतियों में ही पाया जाता है। जीमूतवाहन के कालविवेक में काल के विषय में चर्चा करनेवाले लेखकों में योग्लोक का नाम अन्त में ही लिया गया है। जीमूतवाहन ने अपनी व्यवहारमातृका में योग्लोक को नव- तार्किकम्मन्य अर्थात् एक नये तार्किक के रूप में माना है और उनकी खिल्ली उड़ायी है। जीमूतवाहन के कालविवेक एवं व्यवहारमातृका में योग्लोक के मतों का सर्वत्र खण्डन हुआ है। जीमूतवाहन ने उन्हें बृहद् योग्लोक एवं स्वल्प-योग्लोक नामक दो ग्रन्थों का रचयिता माना है। योग्लोक ने श्रीकर के मतों को माना है, अतः उनका काल श्रीकर के बाद ही आयेगा । रघुनन्दन के व्यवहारतत्व में ऐसा आया है कि योग्लोक ने श्रीकर एवं बालक की भाँति २० वर्ष तक के स्थावर सम्पत्ति के अधिकार को वास्तविक अधिकार मान लिया है। रघुनन्दन ने लिखा है कि योग्लोक को मैथिल लोग प्रमाण मानते थे। योग्लोक ने काल एवं व्यवहार पर ग्रन्थ लिखे और सम्भवतः काल पर उनके दो निबन्ध थे | योग्लोक का काल ९५०-१०५० ई० के बीच में माना जा सकता है, क्योंकि वे जीमूतवाहन से कम-से-कम एक सौ वर्ष पहले हुए होंगे।
७०. विज्ञानेश्वर
धर्मशास्त्र - साहित्य में विज्ञानेश्वर का मिताक्षरा नामक ग्रन्थ एक अपूर्व स्थान रखता है। यह ग्रन्थ उतना ही प्रभावशाली माना जाता रहा है जितना ब्याकरण में पतन्जलि का महाभाष्य एवं साहित्यशास्त्र में मम्मट का काव्यप्रकाश । विज्ञानेश्वर ने मिताक्षरा में अपने पूर्व के लगभग दो सहस्र वर्षों से चले आये हुए मतों के सारतत्व को ग्रहण किया और ऐसा रूप खड़ा किया जिसके प्रकाश में अन्य मतों एवं सिद्धान्तों का विकास हुआ। आज के भारतीय व्यवहार (कानून) में मिताक्षरा का अत्यधिक हाथ रहा है । केवल बंगाल में दायभाग की प्रबलता रही।
मिताक्षरा याज्ञवल्क्यस्मृति पर एक भाष्य है। बहुत-सी प्रतियों के अध्यायों के अन्त में ऋजु मिताक्षरा, प्रमिताक्षरा या केवल मिताक्षरा नाम आया है। मिताक्षरा केवल याज्ञवल्क्यस्मृति का एक माष्य मात्र ही नहीं है, प्रत्युत यह स्मृति-सम्बन्धी एक निबन्ध है। इसमें बहुत-सी स्मृतियों के उद्धरण हैं, यह निबन्ध स्मृतियों के अन्तविरोधों को पूर्वमीमांसा की पद्धति से व्याख्या द्वारा दूर करता है, और भाँति-भाँति के विषयों को उनके स्थानों पर रखकर एक संश्लिष्ट व्यवस्था उत्पन्न करता है। इसमें पहले के छः स्मृतिकारों के, जिन्होंने निबन्ध या माष्य लिखे हैं, नाम आते हैं, यथा -- असहाय, विश्वरूप, मेधातिथि, श्रीकर, मारुचि तथा भोजदेव । स्मृतियों एवं स्मृतिकारों के निम्न नाम अवलोकनीय हैं - अंगिरा, बृहदंगिरा, मध्यमांगिरा, अत्रि, आपस्तम्ब, आश्वलायन, उपमन्यु, उशना, ऋष्यशृङ्ख, कश्यप, काण्व, कात्यायन, काष्र्णाजिनि कुमार, कृष्णद्वैपायन, ऋतु, गार्ग्य, गृह्यपरिशिष्ट, गोमिल,
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