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________________ जितेन्द्रिय, बालक, बालरूप अन्य लेखकों के उद्धरणों से पता चलता है। चतुर्विंशतिमत की टीका में भट्टोजिदीक्षित ने अशौच एवं श्राद्ध पर देवस्वामी को उद्धृत किया है। हेमाद्रि एवं माधव ने भी देवस्वामी का उल्लेख किया है। व्यवहार एवं अशौच पर स्मृप्तिचन्द्रिका ने कई बार इस निबन्धकार के मत दिये हैं। नन्द पण्डित की वजयन्ती में भी देवस्वामी के उद्धरण आये हैं। प्रपञ्चहृदय में ऐसा आया है कि किसी देवस्वामी ने बौधायन एवं उपवर्ष के भाष्यों को बहुत बड़ा समझकर पूर्वमीमांसा के बारह अध्यायों पर एवं संकर्षकाण्ड के चार अध्यायों पर संक्षिप्त टीकाएँ कीं। क्या ये देवस्वामी एवं धर्मशास्त्र के देवस्वामी एक ही हैं। इसका उत्तर सरल नहीं है। स्मृतिचन्द्रिका की चर्चा से यह स्पष्ट है कि देवस्वामी ११५० ई० के बाद के नहीं हो सकते। गार्य नारायण की तिथि लगभग ११०० ई० के है। अतः सम्भवतः देवस्वामी १०००-१०५० के बीच में कभी हए। ६६. जितेन्द्रिय जितेन्द्रिय उन लेखकों में हैं जो एक ही बार अति प्रसिद्ध होकर सदा के लिए विलुप्त हो जाते हैं। जीमूतवाहन के ग्रन्थों से पता चलता है कि जितेंन्द्रिय ने धर्मशास्त्र-सम्बन्धी एक महाग्रन्थ लिखा था। जीमूतवाहन ने अपने कालविवेक में मासों, तिथियों आदि तथा उनमें होनेवाले धार्मिक कृत्यों के विषय में जितेन्द्रिय को भली भाँति उद्धत किया है। ऐसा आया है कि जितेन्द्रिय ने मत्स्यपुराण से लेकर १५ मुहूर्तों की गणना की है। जीमूतवाहन के दायभाग में भी जितेन्द्रिय के मतों का प्रकाशन है। जीमूतवाहन ने अपने 'व्यवहारमातृका' नामक ग्रन्थ में जितेन्द्रिय का हवाला दिया है। स्पष्ट है कि जितेन्द्रिय ने व्यवहार-विधि पर भी प्रकाश डाला है। रघुनन्दन ने अपने दायतत्त्व में इनकी चर्चा की है। जितेन्द्रिय, लगता है, बंगाली थे और उनका काल १०००-१०५० ई० के आसपास माना जाना चाहिए। ६७. बालक जितेन्द्रिय के समान बालक भी हमारे सामने केवल माम के रूप में ही आते हैं। इनके विषय में भी जीमूतवाहन ने बहुत चर्चा की है। दाय के विषय में बालक के ग्रन्थ में पर्याप्त चर्चा हुई थी, जैसा कि जीमूतवाहन के उद्धरणों एवं आलोचनाओं से पता चलता है। भवदेव के प्रायश्चित्त-निरूपण में बालोक नामक लेखक का नाम आया है। हो सकता है कि यह नाम बंगाली लिपिक के उच्चारण की गड़बड़ी से आ गया है। अन्य ग्रन्थों में भी बालक का नाम आता है, यथा रघुनन्दन के व्यवहारतत्त्व, शुलपाणि के दुर्गोत्सवविवेक में। इससे स्पष्ट है कि बालक एक पूर्वी बंगाली थे, जिन्होंने व्यवहार एवं प्रायश्चित्त पर चर्चाएँ की हैं और प्रामाणिक ग्रन्थ लिखे हैं, । उनका काल ११०० ई० के लगभग माना जा सकता है। ६८. बालरूप पुत्रहीन व्यक्ति के उत्तराधिकार के प्रश्न पर हरिनाथ के स्मृतिसार में बाप के मतों का उल्लेख हुआ है। मिसरू मिश्र के विवादचन्द्र, वाचस्पति के विवादचिन्तामणि में बालरूप के मत उद्धत किये गये हैं। पुत्रहीन व्यक्ति की सम्पत्ति पर उसकी अविवाहित पुत्री का उसकी विवाहित पुत्री के पहले अधिकार होता है, ऐसा बालरूप ने कहा है। यह बात उन्होंने पराशर की सम्मति पर ही आधारित रखी है। बालरूप के अनुसार आत्मबन्धु, पितृबन्धु एवं मातृबन्धु क्रम से उत्तराधिकार पाते हैं। आदित्यभट्ट ने अपने कालादर्श में बालरूप को प्रमाण माना है। स्पष्ट है, बालरूप ने व्यवहार एवं काल दोनों पर ग्रन्थ लिखे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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