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________________ पर्मशास्त्र का इतिहास उनका समय ८२० ई० के बाद ही कहा जा सकता है। मिताक्षरा ने उन्हें प्रामाणिक रूप में ग्रहण किया है, अतः वे १०५० ई० के पूर्व कमी हुए होंगे। मनु के अन्य व्याख्याकार कुल्लूकमट्ट ने मेधातिथि को गोविन्दराज (१०५०. ११०० ई०) के बहुत पूर्व माना है। ६४. धारेश्वर भोजदेव __मिताक्षरा (याश० पर, २.१३५; म० ९.२१७; ३.२४) ने धारेश्वर के मतों की चर्चा की है। इसने लिखा है कि ऋष्यशृग की बहुत-सी बातें धारेश्वर, विश्वरूप एवं मेधातिथि को नहीं मान्य थीं। हारलता ने लिखा है कि जातूकर्म्य के बहुत-से मत मोजदेव, विश्वरूप, गोविन्दराज एवं कामधेनु ने जान-बूझकर उद्धृत नहीं किये, क्योंकि वे प्रामाणिक नहीं थे। धारेश्वर धारा के भोजदेव ही हैं, यह कई प्रमाणों से सिद्ध किया जा सकता है। दायभाग ने मोजदेव एवं धारेश्वर दोनों नाम लिये हैं। पृथक्-पृथक् रूप से उद्धृत दोनों के उद्धरण एक ही हैं। विवादताण्डव ने, जो कमलाकर की कृति है, भोजदेव का जो मत लिया है, वह मिताक्षरा द्वारा उल्लिखित धारेश्वर के उबरण के समान ही है। मिताक्षरा ने धारेश्वर को आचार्य की तथा स्मृतिचन्द्रिका ने सूरि की उपाधि दी है। विद्वानों के आश्रयदाता राजा भोजदेव ने विद्या-ज्ञान-सम्बन्धी बहुत-सी कृतियों की रचना की थी। साहित्य-शास्त्र पर सरस्वतीकण्ठाभरण तथा श्रृंगारप्रकाश नामक दो ग्रन्थ उन्हीं के हैं। राजमार्तण्ड के प्रारम्भिक श्लोक से पता चलता है कि भोजदेव ने पतंजलि के समान व्याकरण पर एक ग्रन्थ, योगसूत्र पर एक वृत्ति तथा राजमृगांक नामक चिकित्सा-ग्रन्थ लिखे। राजमृगांक नामक एक ज्योतिष-ग्रन्थ भी उन्होंने लिखा । उनका एक ग्रन्थ तत्त्वप्रकाश त्रिवेन्द्रम् से प्रकाशित हुआ है। इसमें सन्देह नहीं कि मोजदेव (धारेश्वर) ने धर्मशास्त्र-सम्बन्धी एक बृहत् ग्रन्थ लिखा था, जिसकी ओर मिताक्षरा, दायभाग, हारलता तथा अन्य ग्रन्थों ने संकेत किये हैं। जीमूतवाहन ने अपने कालविवेक में ग्रहणों के समय भोजन करने के विषय में भोजदेव के दो श्लोक उद्धृत किये हैं। किसी-किसी ग्रन्थ में किसी भूपालपद्धति के बहुत उबरण आते हैं। सम्भव है यह भूपाल (राजा) धारेश्वर मोजदेव ही हैं। भोजदेव का एक ग्रन्थ है भुजबलनिबन्ध, जो १८ अध्यायों में है। यह अन्य ज्योतिष एवं धर्मशास्त्र-सम्बन्धी बातों से सम्बन्धित है, यथा स्त्रीजातक, कर्णादिवेष, व्रत, विवाहमेलक-दशक, गृहकर्मप्रवेश, संक्रातिस्नान, द्वादशमासकृत्य । भोजप्रबन्ध से पता चलता है कि राजा भोज ने ५५ वर्ष तक राज्य किया। भोज के चाचा मुज ९९४-९९७ ई० में तैलप द्वारा मारे गये और मुञ के उपरान्त सिन्धुराज गद्दी पर बैठा। भोजदेव के उतराधिकारी जयसिंह के अभिलेख की तिथि है १०५५-५६ ई० । अतः भोजदेव १०००-१०५५ ई० के मध्य में कमी हुए होंगे। ६५. देवस्वामी स्मृतिचन्द्रिका का कहना है कि देवस्वामी ने श्रीकर एवं शम्भु की मांति स्मृतियों पर एक निबन्ध (स्मृतिसमुच्चय) लिखा है। दिवाकर के पुत्र एवं नैध्रुव गोत्र में उत्पन्न नारायण ने अपने आश्वलायनगृह्यसूत्र वाले भाष्य में यह लिखा है कि उन्हें देवस्वामी के भाष्य से बड़ी सहायता मिली है। इसी प्रकार नरसिंह के पुत्र गार्य नारायण ने अपने आश्वलायनश्रौतसूत्र के भाष्य में देवस्वामी के भाष्य का सहारा लिया है। लगता है, देवस्वामी ने आश्वलायन के श्रौत एवं गृह्य सूत्रों के भाष्य के अतिरिक्त एक निबन्ध भी लिखा था जो प्रामाणिक माना जाता था। इनके निबन्ध में आचार, व्यवहार, अशौच आदि से सम्बन्धित चर्चाएं हुई हैं, जैसा कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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