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________________ ६८ धर्मशास्त्र का इतिहास ग्रन्थों से उद्धरण लेते हुए विश्वरूप के उद्धरणों को दिया है। संक्षेपशंकरजय में विश्वरूप शंकर के भाष्य के दो वार्तिकों के लेखक कहे गये हैं। शंकर के चार शिष्य थे- सुरेश्वर, पद्मपाद, त्रोटक एवं हस्तामलक । रामतीर्थं के मानसोल्लास में स्पष्ट शब्दों में आया है कि शंकर के शिष्य सुरेश्वर का दूसरा नाम विश्वरूप है । सप्तसूत्र-संन्यास पद्धति के अनुसार शंकर के चार शिष्य हैं- स्वरूपाचार्य, पद्माचार्य, त्रोटक एवं पृथ्वीपर गुरुवंश काव्य ने सुरेश्वर और विश्वरूप को एक माना है और उन्हें कुमारिल एवं शंकर का शिष्य भी घोषित किया है। अतः सुरेश्वर एवं विश्वरूप हम एक ही व्यक्ति मान सकते हैं। अतः विश्वरूप ८००-८२५ ई० में थे, यह सिद्ध हो जाता है। कालान्तर में एक विश्वरूप-निबन्ध भी प्रणीत हुआ, किन्तु यह किसी दूसरे विश्वरूप का लिखा हुआ है। आगे के बहुत-से निबन्धकारों ने विश्वरूप को प्रामाणिक रूप से घोषित एवं उद्धृत किया है। यथा तिथिनिर्णय सर्वसमुच्चय (१४५० ई०) के लेखक, कालनिर्णयसिद्धांत व्याख्या (१६५० ई०) के लेखक, निर्णयसिंधु के लेखक आदि। उहाहतत्व में रघुनन्दन ने विश्वरूप- समुच्चय की चर्चा की है। हो सकता है विश्वरूप ने कोई धर्मशास्त्र सम्बन्धी निबन्ध लिखा हो । ६१. भारुचि मिताक्षरा (याज्ञ० पर, १.८१, २.१२४), पराशरमाधवीय, सरस्वतीविलास ने मारुचि के मतों का उल्लेख किया है। मिताक्षरा की तिथि है १०५० ई०, अतः भारुचि इस कृति से प्राचीन हैं। अपने वेदार्थसंग्रह में रामानुजाचार्य ने अपने पहले के विशिष्टाद्वैत के छः आचार्यों के नाम लिये हैं, यथा---- बोधायन, टंक, द्रमिड, गुह्देव, कपर्दी एवं भारुचि । यही बात यतीन्द्रभतदीपिका में भी पायी जाती है। आरुचि का रचना काल नवी शताब्दी का प्रथम ही माना जाना चाहिए । १०५० ई० के पूर्व भारुचि एक धर्मशास्त्रकार एवं व्यवहार- कोविद भी हुए हैं। हो सकता है कि धर्मशास्त्रकार भारुचि एवं विशिष्टाद्वैत दार्शनिक दोनों व्यक्ति एक ही रहे हों। यदि यह बात ठीक है। तो भारुचि विश्वरूप के समकालीन ठहरते हैं। दोनों के मतों में साम्य भी है। भारुचि के विषय में सरस्वतीविलास में आया है कि वे विष्णुवर्भसूत्र के माष्यकार अथवा एक ऐसी पुस्तक के लेखक रहे हैं जिसमें विष्णुधर्मसूत्र के बहुत-से सूत्रों को व्याख्या हुई है । आपस्तम्वगृह्यसूत्र के भाष्य में सुदर्शनाचार्य ने मारुचि के मतों की चर्चा की है। भारुनि एवं मिताक्षरा के मतों में बहुत विभेद पाया जाता है, यथा दाय एवं विभाग की व्याख्या में । भारुचि ने नियोग को माना है, किन्तु मिताक्षरा ने विरोध किया है। ५२. श्रीकर मिताक्षरा (याज्ञ० पर, २.१३५, २.१६९ आदि), हरिनाथ के स्मृतिसार, जीमूतवाहन के दायभाग एवं व्यवहारमयूख, स्मृतिचन्द्रिका, सरस्वतीविलास आदि ने श्रीकर का उल्लेख किया है । दायभाग ने श्रीकर के मतों का खण्डन किया है। श्रीकर सम्भवतः मिथिला के रहनेवाले थे । श्रीकर ने किसी स्मृति पर भाष्य लिखा या कोई निबन्ध, यह कहना कठिन है। स्मृतिचन्द्रिका ने कहा है कि श्रीकर ने स्मृतियों के निबन्धों का सम्पादन किया। मिताक्षरा, दायभाग तथा अन्य ग्रन्थों में श्रीकर के याज्ञवल्क्यस्मृतिसम्बन्धी मत उल्लिखित हैं। चण्डेश्वर के राजनीतिरत्नाकर में श्रीकर की राजनीति विषयक बातें उद्धृत हैं। हेमाद्रि ने भी इनके मतों का उल्लेख किया है। मिताक्षरा ने श्रीकर की चर्चा की है, अतः श्रीकर की तिथि १०५० ई० के पूर्व होनी चाहिए। असहाय एवं विश्वरूप में श्रीकर का नाम नहीं आता । अतः श्रीकर विश्वरूप के समकालीन या कुछ इधर-उधर हो सकते हैं, अर्थात् उनकी तिथि ८०० तथा १०५० ई० के मध्य में कहीं होगी। श्रीनाथ के पिता श्रीकर से ये निबन्धकार श्रीकर भिन्न व्यक्ति हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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