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विश्वरूप
आचार एवं प्रायश्चित्त-सम्बन्धी विश्वरूप की टीका सचमुच बृहत् है, किन्तु व्यवहार के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। विश्वरूप की शैली सरल एवं शक्तिशाली है और शंकराचार्य से बहुत-कुछ मिलती-जुलती है। विश्वरूप ने वैदिक ग्रन्थों, चरकों, वाजसनेयियों, काठकों, ऋग्वेदीय मन्त्रों, ब्राह्मणों, उपनिषदों को यथास्थान उद्धृत किया है। उन्होंने पारस्कर, भरद्वाज एवं आश्वलायन के गृह्यसूत्रों का पर्याप्त हवाला दिया है। उन्होंने अंगिरा, अत्रि, आपस्तम्ब, उशना, कात्यायन, काश्यप, गार्य, वृद्धगार्य, गौतम, जातूकर्ण (णि), दक्ष, नारद, पराशर, पारस्कर, पितामह, पुलस्त्य, पैठीनसि, बृहस्पति, बौधायन, भारद्वाज, भृगु, मनु, वृद्ध मनु, यम, याज्ञवल्क्य, वृद्ध याज्ञवल्क्य, वसिष्ठ, विष्णु, व्यास, शंख, शातातप, शौनक, सवर्त, सुमन्तु, स्वयंमु (मनु) एवं हारीत नामक स्मृतिकारों का उल्लेख किया है। बृहस्पति के अधिकांश उद्धरण गद्य में ही लिये गये हैं, केवल कुछ एक पद्य में हैं। लगता है, उनके सामने बृहस्पति के दो ग्रन्थ उपस्थित थे। विशालाक्ष की भी चर्चा है, जो राजनीति के एक लेखक थे और जिनका नाम कौटिल्य ने भी उद्धृत किया है। उशना एवं बृहस्पति की तो चर्चा है, किन्तु आश्चर्य है, इन्होंने कौटिल्य का नाम नहीं लिया। इसका उत्तर सरलता से नहीं दिया जा सकता, किन्तु विश्वरूप के समक्ष कौटिल्य का अर्थशास्त्र उपस्थित था, जैसा कि विश्वरूप की विषय-वस्तु की व्याख्या से पता चलता है, यथा मन्त्रियों की परीक्षा में धर्म, अर्थ, काम एवं भय नामक उपायों का प्रयोग कौटिलीय है। कहींकहीं कौटिलीय एवं विश्वरूपीय में पर्याप्त समता पायी जाती है।
विश्वरूप ने पूर्वमीमांसा के प्रति अपना विशिष्ट प्रेम प्रदर्शित किया है। जैमिनि का नाम तक आ गया है। किन्तु आश्चर्य तो यह है कि उन्होंने मीमांसा के लिए 'न्याय' शब्द का ! योग किया है तथा मीमांसकों को “नयायिक" या "न्यायविद्" कहा है। कुमारिल के श्लोकवार्तिक से भी विश्वरूप के भाष्य में उद्धरण लिया गया है। याज्ञवल्क्य (१.७) पर व्याख्या करते समय विश्वरूप ने श्रुति, स्मृति तथा तत्सम्बन्धी बातों के सम्बन्ध को बताते समय ५० से अधिक श्लोक कारिकाओं के रूप में उद्धृत किये हैं। लगता है, ये कारिकाएँ स्वयं उनकी हैं। कारिकाओं के लेखक के रूप में विश्वरूप कुमारिल के समान प्रतीत होते हैं। सम्पूर्ण भाष्य में उन्होंने मीमांसा की कहावतों एवं विवेचन के ढंगों में विश्वास किया है।
यों तो विश्वरूप पूर्वमीमांसा के समर्थक से लगते हैं, किन्तु उनके दार्शनिक मत शंकराचार्य के मत से बहुत मिलते हैं। उनके अनुसार मोक्ष की प्राप्ति केवल ज्ञान द्वारा होती है और यह संसार अविद्या के कारण है।
विश्वरूप ने (याज्ञ० ३.१०३) एक गीतिवेदविद नारद की चर्चा की है। अमिधानकोश एवं नामरत्नमाला से .बहुत-से उबरण लिये हैं। साहित्यदर्पण में उल्लिखित भिक्षाटन काव्य का भी उल्लेख पाया जाता है। भाष्यकारी में विश्वरूप ने असहाय की गौतमधर्मसूत्र वाली टीका की चर्चा की है (याज्ञ० ३.२६३)। विश्वरूप वाली याज्ञवल्क्य स्मृति एवं मिताक्षरा वाली याज्ञवल्क्यस्मृति में कहीं-कहीं कुछ अन्तर भी पाया जाता है। 'अपरे, 'अन्ये' शब्दों उन्होंने अपने पूर्व भाष्यकारों की ओर संकेत किया है।
जीमूतवाहन के दायभाग एवं व्यवहारमातृका में, स्मृतिचन्द्रिका, हारलता तथा कालान्तर के अन्य ग्रन्थों, यथा सरस्वतीविलास में विश्वरूप के मतों की चर्चा हुई है। विश्वरूप एवं मिताक्षरा के मतों में समानता एवं विभिन्नता दोनों हैं। विस्तार-भय से हम साम्य और वैभिन्य से सम्बन्ध रखनेवाली बातों का हवाला नहीं दे रहे हैं।
विश्वरूप ने कुमारिल के श्लोकवार्तिक का उद्धरण दिया है और मिताक्षरा ने उन्हें एक प्रामाणिक भाष्यकार माना है, अतः उनका काल ७५० ई० तथा १००० ई० के बीच में पड़ता है। क्या विश्वरूप और सुरेश्वर एक ही है? सुरेश्वर ने अपने नैष्कर्म्यसिद्धि, तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्यवार्तिक तथा अन्य ग्रन्थों में लिखा है कि वे शंकराचार्य के शिष्य थे। शंकराचार्य की मानी हुई तिथि ७८८-८२० ई० है। माधवाचार्य ने अपने कतिपय ग्रन्थों में सुरेश्वर के
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