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धर्मशास्त्र का इतिहास है। शंकरभट्ट के द्वैतनिर्णय में विज्ञानेश्वर को निबन्धकारों में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। अतः इस ग्रन्थ में भाष्यों एवं निबन्धों में कोई विशिष्ट अन्तर्भेद नहीं रखा जायगा। अब हम उन प्रमुख भाष्यकारों (टीकाकारों) एवं निबन्धकारों के विषय में पढ़ेंगे जिन्हें महत्ता एवं मान्यता मिल चुकी है।
५८. असहाय डॉ० जाली द्वारा सम्पादित नारदस्मृति में कल्याणमट्ट द्वारा संशोधित असहाय के भाष्य का एक अंश है। अभ्युपेत्याशुश्रूषा नामक प्रकरण का, पाँचवें पद के २१वें श्लोक तक ही संशोधित संस्करण प्राप्त हो सका है। कल्याणभट्ट ने लिखा है कि असहाय की टीका लिपिकों द्वारा भ्रष्ट हो गयी थी। व्यवहारमयूख के प्रथम अध्याय में यह आया है कि कल्याणभट्ट ने केशवभट्ट के प्रेरणा-उत्साह से असहाय की टीका संशोधित की। किन्तु संशोधक महोदय ने संशोधन-कार्य में बड़ी स्वतन्त्रता प्रदर्शित की। विश्वरूप ने अपनी याज्ञवल्कीय टीका में असहाय का नाम लिया है। हारलता में अनिरुद्ध ने, जो अद्भुतसागर के लेखक बंगराज बल्लालसेन (लगभग ११६८ ई०) के गुरु थे, लिखा है कि असहाय ने गौतमधर्मसूत्र पर भी एक भाष्य लिखा है। विश्वरूप ने मी यह बात कही है। सम्भवतः असहाय ने मनुस्मृति पर भी कोई भाष्य लिखा था, क्योंकि सरस्वतीविलास के एक अवतरण से पता चलता है कि मनु, याज्ञवल्क्य और उनके भाष्यकार असहाय, मेधातिथि, विज्ञानेश्वर एवं अपरार्क तथा निबन्धों के लेखकों, यथा चन्द्रिकाकार तथा अन्यों ने धर्म-विभाग को स्वीकार किया है। विवादरत्नाकर भी असहाय को मर्नु का टीकाकार मानता है। इन बातों से स्पष्ट है कि असहाय ने गौतमधर्मसूत्र, मनुस्मृति तथा नारद पर टीकाएं की।
विश्वरूप एवं मेधातिथि ने असहाय का उल्लेख किया है, अतः असहाय कम-से-कम ७५० ई. तक निश्चित हो गये हैं, किन्तु इसके पूर्व वे कब हुए, कहना कठिन है। असहाय के जन्मस्थान के विषय में भी निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है।
५९. भर्तृयज्ञ ये एक अति प्राचीन भाष्यकार हैं। मेधातिथि ने इनका उल्लेख किया है (मनु० ८.३)। त्रिकाण्डमण्डन ने अपनी आपस्तम्बसूत्रध्वनितार्थकारिका में भर्तृयज्ञ के मत उद्धत किये हैं। एक मत यह है-जिसने वेद याद कर डाला है, वह यज्ञ करने का अधिकारी है, भले ही उसे वेद-मन्त्रों का अर्थ न ज्ञात हो। भर्तृ यश ने कात्यायनश्रौतसूत्र पर भी एक टीका की थी, ऐसा अनन्त के भाष्य से प्रकट होता है। इसी प्रकार गदाधर, पण्डेश्वर, नित्याचारप्रदीप से पता चलता है कि असहाय की भाँति भर्तयज्ञ भी गौतमधर्मसूत्र के टीकाकार थे। मेधातिथि ने असहाय का भी नाम लिया है, किन्तु विश्वरूप का नहीं। अतः भर्तृ यज्ञ ८०० ई० के पूर्व हुए होंगे और सम्भवतः असहाय के समकालीन होंगे।
६०. विश्वरूप त्रिवेन्द्रम संस्कृत माला में गणपति शास्त्री ने याज्ञवल्क्यस्मृति पर विश्वरूप की बालक्रीडा नामक टीका प्रकाशित की है। स्वयं मिताक्षरा के भूमिका-भाग में यह आया है कि याज्ञवल्क्य के सिद्धान्तों की व्याख्या विश्वरूप ने बड़े विस्तार से की है। मिताक्षरा के कथनानुसार विश्वरूप ने याज्ञवल्क्य के शब्दों को बड़े मनोयोग के साथ देखा है।
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