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________________ संवर्त, हारीत; भाष्य एवं निबन्ध ६५ यति धर्म तथा चोरी, विविध व्यभिचार, अन्य भयानक पापों के विषय में विश्वरूप ने सवर्त के मतों का उल्लेख किया है। इसी प्रकार अन्य भाष्यकारों ने भी आचार-सम्बन्धी उद्धरण दिये हैं। संवर्त के व्यवहारसम्बन्धी कुछ विचार यहाँ दिये जा रहे हैं। संवर्त के अनुसार लेखप्रमाण के सामने मौखिक बातें कोई महत्त्व नहीं रखतीं । जब अराजकता न हो, शासन सुदृढ हो तो जिसके अधिकार में घर-द्वार या भूमि हो वही उसका स्वामी माना जाता है और लिखित प्रमाण धरा रह जाता है (मुज्यमाने गृहक्षेत्रे विद्यमाने तु राजनि । मुक्तियंस्य भवेत्तस्य न लेख्यं तत्र कारणम् ॥ परा० मा० ३ ) । इसी प्रकार कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों की तथ्यपूर्ण चर्चाएँ हुई हैं, जिनके विषय में स्थान-संकोच के कारण हम यहाँ और कुछ नहीं दे पा रहे हैं । जीवानन्द एवं आनन्दाश्रम के संग्रहों में संवर्त के क्रम से २२७ एवं २३० श्लोक हैं। आज जो प्रकाशित संवर्तस्मृति मिलती है वह मौलिक स्मृति के एक अंश का संक्षिप्त सार मात्र प्रतीत होती है । प्रकाशित स्मृति के बहुलांश अपरार्क में उद्धृत हैं। मिताक्षरा ने बृहत्संवर्त का उल्लेख किया है। हरिनाथ के स्मृतिसार में एक स्वल्प संवर्त की चर्चा है। ५६. हारीत हारीत. के व्यवहार-सम्बन्धी द्यावतरणों की चर्चा अपेक्षित है। स्मृतिचन्द्रिका के उद्धरण में आया है-" स्वधनस्य यथा प्राप्तिः परधनस्य वर्जनम् । न्यायेन यत्र क्रियते व्यवहारः स उच्यते ।।" उन्होंने इस प्रकार व्यवहार की परिभाषा की है। उनके मतानुसार वही न्याय-विधि ठीक है जो धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों पर आधारित हो, जो सदाचार से सेवित एवं छल-प्रपंच से दूर हो। नारद की भाँति हारीत ने भी व्यवहार के चार स्वरूप बताये हैं, यथा - धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं नृपाज्ञा । लिखित प्रमाण को उन्होंने बड़ी मान्यता दी है। इसी प्रकार अन्य व्यवहार - सम्बन्धी बातों का विवरण है जिसे स्थान -संकोचवश यहाँ उद्धृत नहीं किया जा रहा है। हारीत बृहस्पति एवं कात्यायन के समकालीन लगते हैं, अर्थात् ४०० तथा ७०० के बीच में कभी उनकी स्मृति प्रणीत हुई । ५७. भाष्य एवं निबन्ध धर्मशास्त्र सम्बन्धी साहित्य लगभग तीन कालों में बाँटा जा सकता है । पहले काल में धर्मसूत्र एवं मनुस्मृति जैसे बृहत् ग्रन्थ आते हैं। यह काल ईसा पूर्व ६०० से लेकर ईसा के बाद प्रथम शताब्दी के आरम्भ तक माना जाता है। दूसरे काल में अधिकांश पद्यमय स्मृतियाँ आती हैं, और यह काल प्रथम शताब्दी से लेकर ८०० ई० तक चला आता है। तीसरे काल में माष्यकार एवं निबन्धकार आते हैं। यह तीसरा काल लगभग एक सहस्र वर्ष तक चला आता है; लगभग सातवीं शताब्दी से १८०० ई० तक यह काल माना जाता है । तीसरे काल के प्रथम भाग को प्रसिद्ध भाष्यकारों का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। स्मृतियों पर भाष्य तीसरे अन्तिम चरण तक लिखे जाते रहे । सत्रहवीं शताब्दी में नन्द पण्डित ने विष्णुधर्मसूत्र पर वैजयन्ती नामक भाष्य लिखा । किन्तु बारहवीं शताब्दी से एक सामान्य प्रवृत्ति यह उत्पन्न हुई कि लेखकों ने भाष्य न लिखकर स्मृतियों के धर्म-सम्बन्धी सिद्धान्तों को लेकर स्वतन्त्र रूप से निबन्ध लिखे, यथा कल्पतरु, स्मृतिचन्द्रिका, चतुर्वर्गचिन्तामणि, चण्डेश्वर का रत्नाकर। इन निबन्धकारों के पूर्व अन्य ग्रन्थों में भी विरोधी भाव स्पष्ट किये गये थे । स्वयं विश्वरूप, मिताक्षरा, अपरार्क आदि ने लिखे तो भाष्य किन्तु उनकी कृतियाँ निबन्धों से किसी मात्रा में कम नहीं हैं। वास्तव में, टीका (भाष्य) एवं निबन्ध में कोई विभाजन रेखा खींचना सरल नहीं धर्म - ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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