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________________ ૪ धर्मशास्त्र का इतिहास व्यास एवं महाभारत के व्यास एक हैं या दो ? हो सकता है कि दोनों एक ही हों। स्मृतिचन्द्रिका ने एक गद्यव्यास का भी उल्लेख किया है। अपरार्क ने वृद्ध-व्यास के एक श्लोक में स्त्रीधन के एक प्रकार 'सौदायिक' की चर्चा की है। मिताक्षरा, प्रायश्चित्तमयूख तथा अन्य ग्रन्थों में बृहद् व्यास के उद्धरण पाये जाते हैं। बल्लालसेन ने अपने दानसागर में महा-व्यास, लघु-व्यास एवं दान-व्यास के नाम लिये हैं । सम्भवतः दान-व्यास का तात्पर्य है महाभारत के दान-धर्म अंश से । ५३. षट्त्रिंशन्मत यह ग्रन्थ चतुर्विंशतिमत के सदृश ही कोई स्मृतिग्रन्थ है । कल्पतरु, मिताक्षरा, स्मृतिचन्द्रिका, अपरार्क, हरदत्त तथा अन्य कतिपय लेखकों ने इसका उल्लेख किया है। विश्वरूप एवं मेघातिथि ने इसका उल्लेख नहीं किया है । यह कृति ७००-९०० ई० के मध्य की मानी जा सकती है। जितने भी उद्धरण मिलते हैं, वे सभी शौच, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि से सम्बन्धित हैं । व्यवहार सम्बन्धी कोई उल्लेख अभी तक नहीं प्राप्त हो सका है । एक श्लोक में बौद्धों, पाशुपतों, जैनों, नास्तिकों एवं कपिल के अनुयायियों के स्पर्श को दूषित ठहराया गया और उसके लिए स्नान की व्यवस्था है । ५४. संग्रह या स्मृतिसंग्रह धर्म-सम्बन्धी सभी विषयों के सिलसिले में मिताक्षरा, अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका एवं अन्य ग्रन्थों ने संग्रह या स्मृतिसंग्रह से उद्धरण लिये हैं । हिन्दू व्यवहार के लिए इस संग्रह के व्यवहार सम्बन्धी उद्धरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। कुछ बातें नीचे दी जाती हैं- पाँच श्लोकों में स्मृतिसग्रह ने अभियोग की आवश्यक विशेषताओं पर प्रकाश डाला है । लेखप्रमाण दो प्रकार के होते हैं-- राजकीय एवं जानपद । जहाँ ५०० पण से अधिक का मामला हो वहाँ घट से विष तक का दिव्य स्वीकृत किया गया है, किन्तु हलके विवादों के लिए कुछ घन की ही व्यवस्था कर दी गयी है । किन्तु नारद ने बड़े विवादों में तुला से लेकर कोश तक के पाँच दिव्य प्रकारों का उल्लेख किया है । संग्रहकार ने केवल सात दिव्यों की ओर संकेत किया है, किन्तु बृहस्पति एवं पितामह ने नौ तक की व्यवस्था कर दी है। माता एवं पिता द्वारा प्रेषित कोश को संग्रहकार ने दाय माना है । संग्रहकार के मतानुसार पुत्रहीन व्यक्ति की वसीयत क्रम से यों की जाती है --विधवा, पुत्रिका, कन्या, माता, पितामह, पिता, अपने भाई, सौतले भाई, पितृसंतति, पितामहसंतति, प्रपितामहसंतति, अन्य सपिण्ड, सकुल्य, आचार्य, शिष्य, सहच्छात्र, विद्वान् ब्राह्मण । संग्रहकार के मत बहुत अंशों में धारेश्वर से मिल जाते हैं, किन्तु मिताक्षरा आदि ने उन्हें नहीं माना है । व्यवहार के मामलों में संग्रहकार याज्ञवल्क्य एवं नारद से बहुत आगे हैं । विश्वरूप एवं मेघातिथि ने संग्रह - कार के विषय में कुछ नहीं कहा है। हो सकता है कि यह ग्रन्थ केवल भोजराज धारेश्वर के ही राज्य में अधिक प्रचलित रहा हो। इससे यह विदित होता है कि संग्रहकार की तिथि ८वीं एवं १०वीं शताब्दी के बीच में कहीं है । मारुचि एवं धारेश्वर मिताक्षरा के पूर्व हुए थे, क्योंकि मिताक्षरा ने उनके नाम लिये हैं। ५५. संवर्त याज्ञवल्क्य की सूची में संवर्त एक स्मृतिकार के रूप में आते हैं। विश्वरूप, मेधातिथि, मिताक्षरा, हरदत्त, अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका तथा अन्य लेखकों ने संवर्त के धर्म-सम्बन्धी विषयों से उद्धरण लिये हैं । सन्ध्या-वन्दन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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