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________________ कात्यायन, अङ्गिरा प्रमाणयुक्त माना है। यह महत्ता कात्यायन को कई शताब्दियों में ही प्राप्त हो सकी होगी। अतः कम-से-कम वे ईसा बाद छठी शताब्दी तक आ सकेंगे। कात्यायन इस प्रकार चौथी तथा छठी शताब्दी के मध्य में कमी हुए होंगे। व्यवहारमयूख ने एक बृहत्कात्यायन तथा दायभाग ने वृद्ध-कात्यायन की चर्चा की है। सरस्वतीविलास ने वृद्ध-कात्यायन से उद्धरण लिये हैं। चतुर्वर्गचिन्तामणि ने उपकात्यायन का भी नाम लिया है। अपरांर्क ने एक श्लोक-कात्यायन का नाम लिया है। जीवानन्द के संग्रह में ३ प्रपाठकों, २९ खण्डा एवं ५०० श्लोकों में एक कात्यायन ग्रन्थ है। यही ग्रन्थ आनन्दाश्रम संग्रह में भी है। इसका छन्द अनुष्टुप् है, कुछ इन्द्रवज्रा में भी हैं। इस ग्रन्थ को कात्यायन का कर्मप्रदीप कहा जाता है। इस कर्मप्रदीप की विषय-सूची इस प्रकार है--जनेऊ कैसे पहना जाय; जल छिड़कना या जल से विभिन्न अंगों का स्पर्श ; प्रत्येक क्रिया-संस्कार में गणेश एवं १४ मातृ-पूजा; कुश; श्राद्ध-विवरण; पूताग्निप्रतिष्ठा, अरणियों, सुक्, स्रुव के विषय में विवरण ; प्राणायाम, वेद-मंत्रपाठ; देवताओं एवं पितरों का श्राद्ध; दन्तधावन एवं स्नान-नियम; सन्ध्या, महाह्निक यज्ञ; श्राद्ध कौन कर सकता है; मरण में अशौच-काल; पत्नीकर्तव्य ; विविध प्रकार के श्राद्ध-कर्म। कर्मप्रदीप में बहुत-से लेखकों के नाम आये हैं। गोभिल, गौतम आदि के नाम यथास्थान आये हैं। नारद, भार्गव (उशना?), शाण्डिल्य, शाण्डिल्यायन की चर्चा हुई है। मनु, याज्ञवल्क्य, महाभारत के उद्धरण आये हैं। इस कर्मप्रदीप (कात्यायनस्मृति) की तिथि क्या है ? क्या यह प्रसिद्ध कात्यायन की ही, जिनका उल्लेख ऊपर हुआ है, कृति है ? मिताक्षरा, अपरार्क तथा अन्य लेखकों ने इससे उद्धरण लिया है, इससे यह सिद्ध है कि यह ग्रन्थ प्रामाणिक मान लिया गया था। यह ११वीं शताब्दी के पूर्व ही प्रणीत हो चुका था, इसमें सन्देह नहीं है। सम्भवतः कात्यायन द्वारा प्रणीत कोई बृहद् ग्रन्थ था जिसका संक्षिप्त अथवा एक अंश कर्मप्रदीप है। __ क्या व्यवहारकोविद कात्यायन एवं कर्मप्रदीप के लेखक एक ही हैं? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है। विज्ञानेश्वर एवं अपरार्क ने इन दोनों में कोई विभेद नहीं माना है। किन्तु विश्वरूप ने कात्यायन से आचार-प्रायश्चित्त-सम्बन्धी उद्धरण नहीं लिये हैं। अतः दोनों लेखक एक हैं कि नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। ३९. अङ्गिरा विश्वरूप से लेकर आगे तक के सभी लेखकों द्वारा अंगिरा से उद्धरण लिये गये हैं। केवल व्यवहारविषयक बातें ही अछूती रही हैं। याज्ञवल्क्य ने अंगिरा को धर्मशास्त्रकार माना है। विश्वरूप ने कहा है कि अंगिरा के कथनानुसार परिषद् में १२१ ब्राह्मण रहते हैं। इसी प्रकार अंगिरा (अंगिरस्) की बहुत-सी बातों का हवाला विश्वरूप ने दिया है। अपरार्क, मेधातिथि, हरदत्त तथा अन्य लेखकों एवं भाष्यकारों ने धर्म-सम्बन्धी बातों में अंगिरा की बहुत ही चर्चा की है। विश्वरूप ने सुमन्तु में उद्धृत अंगिरा के वचन का उल्लेख किया है। उपस्मृतियों के नाम गिनाने में स्मृतिचन्द्रिका ने अंगिरा के गद्यांश उद्धृत किये हैं। जीवानन्द के संग्रह में जो अंगिरस्स्मृति है वह केवल ७२ श्लोकों में है। यह संस्करण सम्भवतः बृहत का संक्षिप्त रूप है। इसमें अन्त्यज से भोज्य एवं पेय ग्रहण करने, गौ को पीटने या कई प्रकार से चोट पहुंचाने आदि जैसे अवसरों के प्रायश्चित्तों का वर्णन है। स्त्रियों द्वारा नील वस्त्र धारण करने की विधियाँ भी इसमें वर्णित हैं। इस स्मृति ने स्वयं अपने (अंगिरा) एवं आपस्तम्ब के नाम भी लिये हैं। इसके उपान्त्य श्लोक में स्त्री-धन को चुरानेवाले की भर्त्सना की गयी है। Jain Education International For Priv For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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